३४० गीता हृदय का हमारा विचार है। मगर अन्तमें थोडासा नमूना पेश किये विना शायद यह प्रयास अपूर्ण रह जायगा। इसीलिये यह यत्ल है। इस श्लोकका अक्षरार्थ तो यही है कि “मभी धर्मोको छोडके एक मेरी-भगवानकी-ही शरणमे जा। मैं तुझे सब पापोसे मुक्त कर दूंगा। सोच मत कर।" गीताको तो उपनिषदोका ही स्प या निचोड मानते है और उपनिषदोमे धर्म-अधर्मके सम्वन्धमे बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि उन्हें कैसे, कब और क्यो छोडना चाहिये । “त्यज धर्ममधर्म च" ये स्मृति वचन धर्म-अधर्म सभीके त्यागकी वात कहते है। कठोपनिषद के भी “अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात्" (२११४) तथा "नाविरतो दुश्चरितात्" (२।२३)मे धर्म-अधर्म सभीके छोडनेकी वात मिलती है। वृहदारण्यक (४१४१२२)से धर्मोका सन्यास आवश्यक सिद्ध होता है यह हमने पहले ही सिद्ध किया है । आत्मा और उसके ज्ञानको न सभी झमेलो से बहुत दूरकी वात इन वचनोने कही है। इसके सिवाय गीतामे ही "सर्वभूतस्थित यो मा भजत्येकत्वमास्थित " (६।३१), "एकत्वेन पृथक्त्वेन" (६।१५) आदि वचनोके द्वारा यही कहा गया है कि असली भजन या भक्ति यही है कि हम अपनेको परमात्माके साथ एक समझे और जगत्को भी अपना ही रूप मानें । यहाँ एक शव्दका अर्थ गीताने स्पप्ट कर दिया है । यह भी बात है कि यद्यपि गीताका धर्म कर्म से जुदा नहीं है, बल्कि गीताने दोनोको एक ही माना है, तथापि सभी कर्मोका त्याग तो असभव है। गीताने तो कही दिया है कि “यदि सभी कर्म छोड दें तो शरीरका रहना भी असभव हो जाय"-"शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण" (३८) । इसीलिये इस श्लोकमे कर्मकी जगह धर्म शब्द दिया गया है, हालांकि इससे पहलेके वीसियो श्लोकोमे केवल कर्म गब्द ही पाया जाता है, धर्म- गब्द लापता है। इसीलिये परिस्थितिवग धर्म गव्द मामान्य कर्मके अर्थमं न बोला जाकर कुछ सकुचित अर्थमे ही यहाँ पाया हुअा माना जाना
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