"ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव" भी सिद्धान्त या धर्मके प्रतिपादक ग्रथ फौरन न बनके पीछे बनते है । इसीसे पाँचसी साल इसके लिये मान लिया है। मगर ब्रह्मसूत्रो (२।२। १८-२६)का हवाला देके उनने यह भी लिखा है कि "आत्मा या ब्रह्ममे से कोई भी नित्य वस्तु जगत्के मूलमे नही है । जो कुछ देख पडता है वह क्षणिक या शून्य है", अथवा "जो कुछ देख पडता है वह ज्ञान है, जानके अतिरिक्त जगत्मे कुछ भी नहीं है, इस निरीश्वर तथा अनात्मवादी बौद्ध मतको ही क्षणिकवाद, शून्यवाद और विज्ञानवाद कहते है" (गीता र० ५८०) । भला ये दोनो बाते कैसे सभव होगी यदि ब्रह्मसूत्रोको गीताके पहले मान ले ? क्योकि बुद्धधर्मके भीतर इन अनेक मतो और पथोके खडे होने और उनके ग्रन्थोके बननेमे तो कई सौ साल लगे ही होगे और विना प्रामाणिक बातके केवल मौखिक बातोका तो खडन ब्रह्मसूत्र जैसा ग्रथ करता नही ।, इस तरह यदि बुद्धके वाद पाँचसौ साल भी इन वातोके लिये मान ले तो ब्रह्मसूत्रोका समय सन् ईस्वीके आरभमे ही माना जायगा। फिर गीताने उन्हे कैसे उद्धृत किया या हवालेमे दिया ? एक ही वात और । "सुमन्तु जैमिनि वैशपायन पैल' सूत्र भाष्य भारत महाभारत धर्माचार्या" (३।४।४) इसी आश्वलायन गृह्यसूत्रमे भारत और महाभारत देखके कल्पना की गई है कि दोनो दो है । इस सूत्रमे पहले जो सुमन्तु आदि नाम आये है उन्हीका सम्बन्ध भारत महाभारतसे जोडते हुए उनने लिखा है कि "इससे, अव यह भी मालूम हो जाता है, कि ऋषितर्पणमे भारत महाभारत शब्दोके पहले सुमन्तु आदि नाम क्यो रखे गये है" (गी० र० ५२४) । मगर हमे अफसोस है कि ऐसा लिखते समय यह बात उन्हे कैसे नही सूझी कि नाम तो चार ही ऋषियोके आये है, मगर ग्रथ हो जाते है सूत्र, भाष्य, भारत, महाभारत और धर्म ये पाँच ! हाँ, यदि यह मान ले कि भारत अलग न होके भूलसे महाभारतका ही 'भारत महाभारत' ऐसा लिखा गया है, तव ठीक हो सकता है । तभी चार २२ , - .
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