३३६ गीता-दय आवश्यकता ही नीलिये हुई मी, वही यह भी मानते है कि उस समय "शानोत्तर कम करना अगवान परना, हर एपकी इच्टापर अवलम्बित था, नर्थात् कास्पिक गमझा जाता था" (गंतारा० पृ० ५५४)। वे इननः गम्बन्धमं उन्ही वेदान्तमा या ग्रता-मृत (३।४१५) प्रमाण लिये उद्धा भी गारते। एंगी सामं यह बात तो गमझम या जाती है कि मा-TT गीताको अपन गमयंगमं उद्धृत कर नं । लेकिन गीता, उनी बता-गूनों का स्वाना संग दिया जा सकता है ? क्योंकि ज्योही यह बात कि गीता पनुन रानामी नगरम उन नूयोती महत्ता पाजायगी। फलत एम गोग वेदान्नगामा उन तोपर भी स्वभावत. प्राकृप्ट होग ही जिनगे शानोतर काम करना जारी नहीं माना गया । परिणाम पगारोगा यही न, fr गीतानी वही चीज माननेकी पोर उनकी प्रवृत्ति हो जायगी ? अगए। बा मुनीवन प्रौर कठिनाईक बाद गोता- रहस्य जो गर निद करने की निकाली गई किशानोत्तर कर्म करते- करते हो पग्ना गीताामं पोरगंनोपदेगा है, उनकी जमे ही इस प्रकार ठाराघातको जायगा। जिस बात की पुष्टिके लिये यह चीज पेग को गई उगीको कमजोर करने लगेगी । और खुद गीता अपने ही मिद्धान्तको दुर्बल करनेका गमाग तरह ब्रह्मगूगका नाम लेकर गाफ कर दे, यह श्रमभव है। एक तरफ तो यह कहा जाता है कि महाभारतका तया उमौके भीतर श्रा जानेवाला गीताका भी निर्माण "बुसके जन्मके वाद-परन्तु अवतारो- में उनकी गणना होने के पहले ही" हुना होगा। इमीलिये विष्णुके अव- तारोम बुद्धकी गणना महाभारतमे कटी पाई नही जाती। गीतारहस्यमें यह भी माना गया है कि यद्यपि महाभारतके युद्धके समय भागवतधर्मका उदय हो गया था। तथापि उसकी प्रधान पोयाके रूपमे इस गीताकी रचना तत्काल न होके प्राय पानसी वर्ष वाद हुई होगी। क्योकि किसी
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