"ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव" ३३५ माना जाय कि इस प्रकार आमतौरसे सूत्रो और उनके व्याख्यानोका उल्लेख करने मात्रसे वे भी ब्राह्मणग्रन्थोसे पहले थे? खूबी तो यह है कि जब एक ही तरहका उल्लेख कई उपनिषदोमे मिलता है तो मानना ही होगा कि वे सूत्र और व्याख्यान प्रसिद्ध होगे और ज्यादा सख्यामे होगे। इतिहास पुराण भी काफी होगे। ऐसी दशामे इन शब्दोका रूढ अर्थ न मानके यौगिक ही माननेमे गुजर है। जैसा कि इस श्लोकमे हमने ब्रह्मसूत्र शब्दका अर्थ रूढ न करके यौगिक ही है किया है। दूसरा उपाय हई नही। इसलिये हमने जो अर्थ इस श्लोकका लिखा है वह कोई यकायक नई कल्पना नहीं है। किन्तु ऐसी कल्पना पहले भी होती आई है। शकरने उसीका अनुसरण किया है । वेशक, यह विषय और भी अधिक विवेचन चाहता है। मगर वह यहाँके लिये नहीं है। किन्तु आगे होगा। लेकिन दो एक ऐसी बाते और भी यही कह देना जरूरी है जिनके वारेमें विशेष अन्वेषण एव जाँच-पडतालकी जरूरत नहीं है । सबसे पहिली बात यह है । यह जानते हुए भी कि ब्रह्मसूत्रोने गीताको ही प्रमाण-स्वरूप उद्धृत किया है, गीताकारके लिये यह कब सभव था कि उन्ही ब्रह्म-सूत्रोको प्रमाण के रूपमे स्वय उद्धृत करते ? यह तो विलकुल ही अनहोनी वात है । व्यवहारमे तो यह बात कभी देखनेमे आती नही। चाहे कितनी ही महत्त्वपूर्ण और बडी पोथी क्यो न हो। मगर ज्योही एक बार उसने किसी दूसरीको अपनी बातोके समर्थनमे उद्धृत किया कि उसके सामने उसकी अपनी महत्ता वैसी नहीं रह जाती। फलत कोई भी समझदार आदमी इस दूसरीके समर्थनमे पहलीकी किसी वातको प्रमाण-स्वरूप पेश नहीं करता, पेश करनेकी हिम्मत नही करता। फिर गीता जैसे महान् ग्रथमे ऐसी वातका होना कथमपि सभव होगा यह कौन माने ? दूसरी बात भी इसीसे मिलती-जुलती ही है। जो लोग यह मानते है कि ज्ञानोत्तर कर्म करना गीताके मतसे अनिवार्य है, जिनके मतसे गीताकी
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