ईश्वरार्पण और मदर्थ कर्म १५ को मालूम होने लगता है तो चसका लग जाता है, मजा आने लगता है। कुछ समय और गुजरने के बाद इन्सानकी समझ ऐसी होने लगती है कि वह जो कुछ करता धरता है वह इस विराट् एव महाकाय ससारकी स्थिति, वृद्धि तथा प्रगतिके ही लिये हो रहा है । यहाँतक कि वह अपने श्वास- प्रश्वास और पलक मारने तकको उसी प्रगतिके लिये जरूरी एव अनिवार्य क्रिया कलापका एक अश देखता है। इस प्रकार उसका समस्त जीवन परोपकारमय बन जाता है। फिर भी यह सब कुछ होता है उस यज्ञके ही रूपमें। उसकी यह अविचल धारणा बराबर बनी रहती है कि जो महान् यज्ञ ससारके कल्याणके लिये चालू है उसीकी पूत्ति हमारे प्रत्येक कामो, प्रत्येक हलचलो तथा छोटी-बडी सभी क्रियाओके द्वारा निरन्तर हो रही है। ईश्वरार्पण और मदर्थ कर्म इस मनोवृत्तिका, इस दशाका पूरा परिपाक हो जानेपर चौथी सीढी आती है, जो ऊपर उठनेकी दशाकी दूसरी कही जा सकती है । इस दशामे पहुँचनेपर ससारकी विभिन्नता (diversity) का ज्ञान नही रहता है। जिस प्रकार मनुष्य व्यक्तित्वसे शुरू करके समष्टिमे पहुँच जाता है और वहाँ पहुँचते ही व्यक्तित्व लापता हो जाता है, ठीक उसी प्रकार समष्टिके ही थोडा और भी ऊपर उठनेपर वह समष्टि भी विलीन हो जाती है। व्यक्तित्व या व्यष्टि और समष्टि ये दोनो ही सापेक्षिक चीजे है-इनमें एकको दूसरेकी अपेक्षा है-ये दोनो परस्पर सापेक्ष है । जैसे पिता और पुत्र दोनो ही परस्पर सापेक्ष है। इसीलिये एकके ज्ञानके लिये दूसरेके ज्ञानकी अपेक्षा है और इसीलिये यदि किसीको दूसरेकी अपेक्षा न जाने तो उसे पिता या पुत्र न कहके आदमी, इन्सान या मनुष्य ही कहेंगे और जानेगे भी। यही बात व्यष्टि तथा समष्टिकी भी है ।
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