"ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव" ही ईश्वर भी कहा है। प्रात्मा नामसे न तो किसीको कभी बोलते ही और न यह विशेषण ही किसीमे लगाते है । स्वभावत ही महान् होनेसे ही महात्मा या महेश्वर कहनेकी परिपाटी पड गई है। इसी प्रकार ताड्य, पातजल' भाष्य और महाभारतको भी स्वभावत बहुत बडे होनेके कारण ही महाब्राह्मण, महाभाष्य' और महाभारत' कहने लग गये । यहाँ बालकी खाल खीचनेकी जरूरत हई नही। उसोमे उसे कही भारत और कही महाभारत लिखा है। जरा यह भी तो सोचे कि भारतमे महज थोडा-बहुत जोडनेसे ही तो महाभारत होता नहीं। इसके लिये तो जरूर ही बहुत ज्यादा जोड-जाड़ करना होगा। जहाँ अपेक्षाकृत महत्ता दिखानी होती है तहाँ पहलेसे दूसरे में बहुत ज्यादा अन्तरका होना अनिवार्य है। जाल और महाजाल इस बातके मोटे दृष्टान्त है, समुद्रमे डाले जानेवाले महाजालके भीतर जाने दूसरे कितने ही जाल प्रामानीसे समा सकते है, आ सकते है । अन्य मारक-बीमारियोकी अपेक्षा हैजा या प्लेगको हजार गुना मारक और खतरनाक समझके ही इन्हे महामारी कहते है। ऐसी दशामे भारतकी अपेक्षा महाभारतमे बहुत ज्यादा--कई गुना--पदार्थ घुसानेसे ही उसे महाभारत कह सकते थे। फिर तो दोनोकी पृथक् सत्ता अनिवार्य है। यह असभव है कि महाभारतके रहते भारत सर्वथा लुप्त हो जाये । बराह- मिहिरके वृहज्जातकके रहते लघुजातक कही गायब नही हो गया और न मजूषाके रहते व्याकरणकी लघुमजूषा कही चली गई। बराहमिहिरकी वृहत् सहिताके मुकाबिलेमे उनकी कोई लघुसहिता या केवल सहिता नहीं मानी जाती। महान् तथा वृहत्का एक ही अर्थ है भी। सबसे बडी बात यह हो जायगी कि गीतामे भी तब बहुत ज्यादा परिवर्तन मानना होगा। यह नही हो सकता कि जो गोता भारतमे थी वही जरा-भरा परिवर्तनके साथ महाभारतमे आ गई ।
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३२९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।