३२४ गीता-हृदय ऐसा भी था जब वर्ण विभाग विलकुल थाई नही। सभी एक ही थे। पीछे वर्णोका विभाग बना। दूसरी चीज यह कि पहले सभी ब्राह्मण ही थे। क्योकि सभी ब्रह्माके पुत्र थे। ब्रह्मन् शब्दसे ब्रह्मा वनता है और ब्राह्मण भी। ब्राह्मणका अर्थ ही ब्रह्माका पुत्र । द्विज तो उन्हे इसीलिये कहते है कि उनके दो जन्म (द्वि+ज) होते है। एक माता-पितावाला और दूसरा गायत्री सस्कारवाला। तीसरी बात यह कि ये जो वर्ण-भेद हुए वह स्वभाव तथा क्रिया (काम) की विभिन्नता एव शरीरके रग (वर्ण)- की विभिन्नतासे ही। इस तरह जो अनेक वर्ण वने उन्हें अपनी असली हालत (ब्राह्मणता) से पतन माना गया यह चौथी बात है। इससे पता लगता है कि एक समय ऐसा जरूर था जब किसी भी प्रकारके विभागकी जरूरत न थी। इसे ही प्रारम्भिक साम्यवादी अवस्था (Primitive communism) कहते है । पाँचवी बात यह है कि शूद्रोके बारेमे लिखा है कि वे सभी काम करने लगे “सर्वकर्मोपजीविन"। इससे दो बाते सिद्ध हो जाती है, एक तो यह कि शूद्र सभी वर्गों के रिजर्वका काम करते थे। दूसरी यह कि उन्हे कला-कौशल और दस्तकारी वगैर के हजारो काम करने पडते थे । छठी बात यह कि सबोको जो यज्ञ करनेकी छुट्टी है और इसकी रोक न होके करने पर ही जोर दिया गया है उससे पता लगता है कि फिर उसी ओर इन्हे जाना है जहाँसे आये थे। इन्हें यह यज्ञ याद दिलाता है कि पुनरपि उसी साम्यवादी अवस्थाको प्राप्त करना है। यज्ञका अर्थ है भी बहुत व्यापक, जैसा कि पहले ही भाग मे लिखा जा चुका है। इन श्लोकोने सभी वर्गों के स्वभावोका अच्छा चित्र खीचा है । यही पर एक बात और जाननेकी है जिसका ताल्लुक वर्णसकरसे है । जब एक बार वर्णोका विभाग हो गया तो इस बातकी पूरी व्यवस्था कर दी गई कि फिर खिचडी होने न पाये-फिर ऐसा न हो कि वर्णोंकी खिल्लत मिल्लत हो जाय । चाहे इस बात पर कितने ही प्राक्षेप किये जायें--
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