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१४ गीता-हृदय कायम और चालू रखनेके लिये जितने भी काम (कर्म) किये जाते है, मभी यज्ञके अन्तर्गत माने गये है। अतएव मन शुद्धिके बाद ऊपर उठने- वाला आदमो जो भी कुछ काम गरीरयानाके लिये या दूगनो भली लिये करता है सभी यज्ञमं आ जाता है। जिसे ग्रामनौग्ने हिन्दू लोग यज्ञ कहते हैं उससे लेकर बडेमे बरे और छोटे छोटे कामोको-बोको ही-यज्ञका स्वरूप मिल जाता है। यज्ञार्थ कर्म वह मामूली यज्ञरो शुभ करके ही आगे बढ़ता है । यग एक पूर्वी है कि इसके करनेवालेको कुछ न कुछ घी, अन्न आदिका त्याग परना ही होता है। इसीलिये इसे सैक्रिफाइस (sacrifice) और गुर्वानी भी कहते है। इस प्रकार ऊपर उठनका काम इस त्यागवृद्धिमे ही गुरु होता है और यह चीज अागे वळती जाती है। गीताको यही तो पूरी है कि जो यज्ञ, कु निी या मैक्रिफाइन मर्वजन प्रसिद्ध और सर्वप्रिय है और जिसमे श्रास्तिक-नास्तिकका भी कोई मतभेद नहीं है क्योकि त्याग और कु निीके कायल तो नास्तिक भी हुई-उमीने गुरु करके लोगोको आगे वढाती है । फलत इसमे दिवकत नहीं होती। कर्मके गहनमार्गको सरल बनानेका इससे सुन्दर और बालबोध तरीका दूसरा होई नही मयता । और जव एक वार उस च मे हमने पचि दे दिया और उस लहरके भीतर पड गये तो फिर अन्ततक, देर या अवेरसे, पहुँचे विना चिर्म र कना असभव है। इसीलिये आमतौरसे यज्ञार्थ कर्म करनेकी यह तीनरी सीढी कर्मके सिलसिलेमें मानी जाती है और उसमे उस यज्ञका कोई विश्लेषण या विवरण नही पाता है। लेकिन जब इस तीसरी मीढी या दशामे भी कुछ प्रगति हो जानेपर खोद-विनोद शुरू हो जाती है और क्रमग इस यज्ञका असली महत्त्व लोगो