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"जायते वर्णसंकरः" ३२३ गोवर जो हो जाता। कोई भी वर्ण अपना काम ठीक-ठीक पूरा न कर पाता। इसी वर्ण या रगका खयाल करके ही चारोको वर्ण कहा । वर्ण विभाग शब्दका भी यही मतलव है। इसीलिये महाभारतके शान्तिपर्व- के मोक्ष धर्मके १८८वे अध्यायमे भृगुका वचन इस प्रकार लिखा गया है, "न विशेषोऽस्तिवर्णाना सर्व ब्राह्ममिद जगत्। ब्रह्मणापूर्व सृप्ट हि कर्मभिर्वर्णता गतम् ॥१०॥ कामभोग प्रियास्तीक्ष्णा क्रोधना प्रियसाहसा । त्यक्तस्वधर्मा रक्तागास्ते द्विजा क्षत्रता गता ॥११॥ गोभ्यो वृत्ति समास्थाय पीता कृष्युपजीविन । स्वधर्मान्नानुतिष्ठन्तितेद्विजावैश्यता गता ॥१२॥ हिंसानृतप्रिया लुब्धा सर्वकर्मोपजीविन । कृष्णा शौचपरिभ्रष्टास्तेद्विजाः शूद्रता गता ॥१३॥ इत्येनै कर्मभिर्व्यस्ता द्विजावर्णान्तर गता । धर्मो- यज्ञक्रियातेषा नित्य न प्रतिषिध्यते" ॥१४॥ इन श्लोकोका आशय यह है-“शुरू-शुरूमे तो वर्णीका विभेद था ई नहीं; ससारमे सभी ब्राह्मणं ही थे। क्योकि ब्रह्माने ही तो सबको पैदा किया था। मगर पीछे विभिन्न कामोके करते अनेक वर्ण हो गये। जिन ब्राह्मणो (ब्रह्माके पुत्रो)को पदार्थों के भोगमे ज्यादा प्रेम था, जो रूखे स्वभावके और क्रोधी थे और जो बहादुरीकी ओर बहुत ज्यादा झुकते थे ऐसे रक्त वर्णवाले ब्राह्मण ही अपना कर्त्तव्य छोड देनेके कारण क्षत्रिय हो गये। जो पीले शरीरवाले गौ आदि पशुमोको पालते और खेतीसे जीविका करने लगे थे, साथ ही जो अपना (ब्राह्मणका) धर्म करते न थे वही वैश्य हुए। जो हिंसा और असत्यकी ओर अधिक झुकते थे, लोभी थे, काले वर्णके थे, सफाईसे नहीं रहते थे और सभी काम करते थे वही ब्राह्मण शूद्र हो गये । इस प्रकार अलग-अलग कर्मोंके चलते एक ब्राह्मण समाज ही अनेक वर्णोंमे बँट गया। इसीलिये तो सबोके पहचान स्वरूप यज्ञकी क्रिया सभीके लिये जरूरी बताई गई है। किसीके लिये उस यज्ञकी मनाही नही है ।" इन श्लोकोसे कई बाते साफ होती है। एक तो यह कि एक समय