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"जायते वर्णसकरः" ३२१ अब समाजोपयोगी एक ही तरहका काम बच जाता है जिसे कारी- गरी कहते है। इसमे दिमाग और शरीर दोनोके ही पूरे-पूरे सहयोगका सवाल पाता है। पहलेके तीनो वर्ण यह कर न सकते थे। उनके काम ऐसे हो गये कि दूसरी बातमे पड़ने पर उनसे वह काम भी पूरे न हो पाते। एक बात यह भी है कि कारीगरीमे हजारो बाते है । अस्त्र-शस्त्र बनाना, कपडा बनाना, यत्रादि बनाना वगैरह। फिर इनमे भी कितने ही विभाग हो जाते हैं । इसीलिये इन सबोके लिये एक दल ऐसा ही चाहिये जो बाँटके एक-एक काम ले ले और उसे न सिर्फ पूरा करे, किन्तु उसमे पूर्ण प्रगति करे, नये-नये आविष्कार करे। इसीके साथ मौके ब मौके ब्राह्म- णादि तीनो वर्णो के भी काम कर सके। जरूरत आने पर ब्राह्मणका काम करे और आवश्यकता होने पर क्षत्रिय या वैश्य का। साराश यह कि उक्त तीनो वर्गों के लिये सरक्षित शक्ति (Reserve force) का काम दे। इसीलिये चौथा वर्ण वना जिसे शूद्र कहते है और उसमे भी लुहार, वढई आदि सैकडो छोटे-छोटे विभाग हो गये। हमने सभी पुरानी पोथियो- को देखा है। उनमे सभी तरहके दस्तकारो और कारीगरोको शूद्र ही कहा है। शूद्र सभी वर्गों की कमीको भी पूरा (Supplement) करता था यह बात भी माननी ही होगी। इसीलिये तो ऐसे अनेक पाख्यान पुराने ग्रथोमे मिलते है जिनसे पता चलता है कि ब्राह्मण और क्षत्रियको भी कभी-कभी शूद्र कह देते थे। छान्दोग्य-उपनिषदके चौथे अध्यायके पहले दो ब्राह्मणोमे जानश्रुति राजा और रैक्व ऋषिका आख्यान आया है और चौथे मे सत्यकाम जाबाल ऋषिका। रैक्वने जानश्रुतिको दो बार शूद्र कहा है-“तमुह पर प्रत्युवाचाह हारेत्वा शूद्र तवैव सहगोभिरस्तु" (४।२।३) तथा “तस्याह मुखमुपोद्गृह्णन्नु वाचाजहारेमा शूद्रानेनैव मुखेन्त लापयिष्यथा.” (४।२।४) । 'रैक्वने दोनो जगह जानश्रुति राजाको २१