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३२० गीता-हृदय इसी प्रकार शासन और व्यवस्थाके लिये भी समाजका एक विभाग अलग कर दिया गया था जिसे क्षत्रिय' नाम दिया गया। इसमें भी वही बात है जो ब्राह्मणके सिलसिलेमे कही गई है। शासनका काम बडा ही पेचीदा है। अमन एव शान्ति बरावर बनाये रखना ताकि समाज ठीक- ठोक प्रगति कर सके, मामूली काम नहीं है। युद्ध विद्याको व्यावहारिक रूप देना और उसे पूर्णताको पहुँचाना असभव सी चीज है। सभी दिमागो कामोके बीचमे ब्राह्मणोके लिये गैरमुमकिन था कि युद्ध विद्याको अमली रूपमे शिखर पर पहुँचा दे । द्रोण या कृपकी तरह कोई-कोई ऐसा करें भी तो सभी ब्राह्मणोके लिये यह असभव बात थी। और जब तक सामू- हिक रूपसे लाखो लोग यह काम न करे शत्रुप्रोसे सफलतापूर्वक लोहा लेना असभव था । द्रोण वगैरह इस काममे पडे तो दूसरी विद्याप्रोकी उतनी जानकारी उन्हें भी नही रही। इसीलिये क्षत्रिय नामका एक जुदा वर्ण शासन और युद्धके विज्ञानमे पारगत होनेके ही लिये बनाया गया। मगर जब तक खेती-बारी और रोजगार-व्यापार अच्छी तरहसे न हो न तो ब्राह्मणका ही काम चल सकता है और न क्षत्रियका ही। जैसे फौजके कमिसरियट विभागके बगैर सभी सेना अन्न, वस्त्रादि जरूरी चाजोके बिना ही खत्म हो जाय । ठीक वही बात वर्णों के बारेमे भी सम- झना चाहिये। इसीलिये तो वैश्य नामक तीसरा वर्ण बनाया गया जो खेती-बारीके द्वारा अन्न, दूध, घी आदि उपजाये और व्यापारके जरिये वस्त्रादि दूसरी जरूरी चीजे मुहय्या करे। अधिकाश व्यापार तो पहले जमीनसे उत्पन्न चीजोका ही होता था। प्राजके कारखाने तो पहले थे नही । इसीलिये वैश्यका ही काम खेती और व्यापार दोनो ही रखा गया। फौज आदिके लिये सामूहिक रूपसे भी अन्न-वस्त्र और अस्त्र- शस्त्रादि वही जमा कर सकता था। इसीलिये व्यापार भी उसीके हाथ- में था।