७. "जायते वर्णसंकरः" गीताके पहले अध्यायके 'अधर्माभिवात् कृष्ण' (११४१) श्लोकमे वर्णसकरके मानीमे भी अकसेर गडबड हो जाती है। वर्णसकरका शब्दार्थ है वर्णोका सकीर्ण हो जाना या मिल जाना। जब वर्गों की कोई व्यवस्था न रह जाय तो उसी हालत को वर्णसकर कहा जाता है। बात असल यह है कि हिन्दुअोने जो वर्णोकी व्यवस्था बनाई थी वह उस समयके समाजकी परिस्थिति और प्रगतिके अनुकूल ही थी। उनने यह अच्छी तरह देख लिया था कि समाज कहाँ तक उन्नति कर गया, आगे बढ गया और किस हालतमे है-उसकी प्रगति वैसी ही तेज़ है, रुक गई है या बहुत ही धीरे-धीरे चीटी कीसी चालसे चल रही है। बस, यही बाते देखके इन्हीके अनुकूल वर्णोकी व्यवस्था उस समय बनी थी और यह बनी थी जीवन-सग्राम (Struggle for existence) का खयाल करके ही। पुराने जमानेमे युद्ध करनेवाली सेनाके चार विभाग होते थे, जिन्हे पैदल, रथवाले, घुडसवार और हाथी सवार कहते थे । तोपखाना आज- की तरह अलग न था, किन्तु इन्ही चारोके साथ आवश्यकतानुसार जुटता था। उनका रथ बहुत व्यापक अर्थमे बोला जाता था। इसी- लिये कहा जाता है कि राम-रावणके युद्धमे रामके पास रथ न होनेके कारण देवताओने भेजा था। वह रथ तो कोई हवाई जहाज जैसी ही चीज होगी। यह भी मिलता है कि वैसे ही रथसे राम जगलसे अयोध्या वापस आये थे। इसीलिये आजका हवाई जहाज भी उसीमे आ जाता है। समुद्री जहाजोकी लडाई तब तो थी नही। फिर भी वे तो रथके भीतर ही आ जाते है । अन्तर यही है कि वह रथ पानीमे चलनेवाला 3 ,
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