"अपर्याप्तं तदस्माकम्" ३१५ चढता है तो उसका बलबलाना बन्द हो जाता है । उँचाई कैसी है इसका मजा भी मिलता है। यही बात हमेशा होती है जब ठोस चीजो और परिस्थितियोका सामना करना पड़ता है। अर्जुनने भी तो बहुत दिनोसे जान-बूझके लडाईकी तैयारी की थी और जब कभी युधिष्ठिर जरा भी आगा-पीछा करते तो घबरा जाते थे और उन्हे कुछ सुना भी देते थे। मगर मैदाने जगमे जब सभी चीजे सामने आई और ठोस परिस्थिति चट्टान- की तरह आ डॅटी तो घबराके धर्मशास्त्रकी पोथियोके पन्ने उलटने लगे। क्या उन्हें पहले मालूम न था कि युद्धमे गुरुजनो और कुलका सहार होगा? फिर यह रोना पसारनेकी वजह क्या थी सिवाय इसके कि पहले ठोस चीजे सामने न थी, केवल दिमागी बाते थी, मगर अब वही चीजे स्वय सामने आ गईं ? यही बात दुर्योधनकी थी। पहले बडी-वडी कल्पनाये थी। मगर युद्धके मैदानमे सारा रग फीका हो गया ! गीताके वाद भी यदि यही श्लोक आये है तो इससे क्या ? अगर इन श्लोकोसे उसकी त्रस्तता सिद्ध होती है तो बादवाले भी यही सिद्ध करेंगे। हाँ, यदि इनमे ही उत्साह-उमग हो तो वात दूसरी है। मगर यही तो अभी सिद्ध करना है। इसलिये बादके श्लोक तो गीताके ही श्लोकोके अर्थपर निर्भर करते है। यदि गीतामे ही बादके १२से लेकर १६ तकके पाठ श्लोकोको देखा जाय तो पता चलता है कि केवल दो श्लोको- मे दुर्योधनके पक्षवालोके बाजे-गाजे वगैरह बजनेकी बात लिखी है और बाकी ६मे पाडव पक्षकी ! खूबी तो यह है कि इन दोनोमे भी पहलेमे सिर्फ भीष्मके गर्जन और शखनादकी बात है। दूसरेमे भी किसीका नाम न लेके इतना ही लिखा है कि उसके बाद एक-एक शख, नफीरी आदि वज पडी। मगर पाडव पक्षका तो इन शेष ६ श्लोकोमें पूरा ब्योरा दिया गया है कि किसने क्या बजाया। इससे इतना तो साफ हो जाता
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