"अपर्याप्त तदस्माकम्" जाता है कि दुर्योधनके भीतर हर्षका नाम भी न था। इसीलिये भीष्मने उसे पैदा करनेकी कोशिश की। 'जनयन्' के पहले जो “सम्" दिया गया है उससे यह भी प्रकट होता है कि काफी मनहूसी थी जिसे हटाके खुशो लानेमे भीष्मको अधिक यत्न करना पड़ा। यह भी तो विचित्र बात है कि वह वाते तो करता है द्रोणसे । मगर वह तो कुछ बोलते या करते नही। किन्तु उसे खुश करनेका काम भीष्म करते है जिनके पास वह गया तक नही । वह जानता था कि उनके पास जाना या कुछ भी कहना बेकार है। वह तो सुनेंगे नही उलटे रज हो गये तो और भी बुरा होगा। इसीलिये सेनापति होते हुए भी उन्हे छोडके द्रोणके पास दुर्योधन इसीलिये गया कि खतरेसे सजग कर दिया जाय । उचित तो सेनापतिके ही पास जाना था। यही तरीका भी है। मगर न गया। इससे भीष्मको भी पता चल गया कि मेरी ओरसे उसे शक है । इसीसे भीतर ही भीतर नाखुश है। उसी नाखुशीको दूर करनेके ही लिये उनने बिना कहे-सुने शख वजाया। नही तो एक प्रकारके इस अकाड ताडवका प्रयोजन था ही क्या? जोरसे सिंहगर्जन करना और खूब तेज शख बजाना अपनी सफाई ही तो थो । द्रोणके पास जानेमे दुर्योधनका और भी मतलब था। युद्धविद्याके आचार्य तो वही थे। इसलिये आगे लडाईकी सफलता और भीष्मादिकी रक्षाका ठीक उपाय वही बता सकते थे। यह काम जितनी खूबी के साथ वह कर सकते थे दूसरा कोई भी कर न सकता था। शत्रुओकी सारी कला और खूवियोको वही जानते थे। उन्हे जरा उत्तेजित भी करना था । जिन्हें सिखा-पढाके उनने तैयार किया वही अब उन्हीसे निपटनेको तैयार है ! जिस धृष्टद्युम्नको रणविद्या दी उसीने आप हीके खिलाफ व्यूहरचना की है । कृतघ्नता की हद्द हो गई । इसीलिये जो “तव शिष्येण" यह विशेषण उसने "द्रुपद पुत्रेण"के साथ लगाया है उसके दोनो ही मानी
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