३१२ गीता-हृदय ? जरा यह भी तो देखिये कि जहाँ स्वय दुर्योधनने शत्रुप्रोकी सेना और उसके सेनानायकोका वर्णन पूरे चार (३से ७) श्लोकोमे किया है, तहाँ अपनी सेनावालोका सिर्फ एक (८) ही श्लोकमें करके अगले (हवें)में केवल इतने से ही सन्तोष कर लिया है कि और भी बहुतेरे है जो मेरे लिये मर मिटेगे | आखिर वात क्या है यह "प्रथमग्रासे मक्षिकाभक्षणम्" कैसा ? अपने ही लोगोका कीर्तन इतना सक्षिप्त ? इसमे भी खूबी यह कि जिनके नाम गिनाये है उनमे एकाधको छोड सभी दोतर्फे है, और विकर्ण तो साफ ही युधिष्ठिरकी ओर जा मिला था, यहगीताके वादवाले ही अध्यायमे लिखा है। शत्रु पक्षके वर्णनमें भी यह वात है कि द्रुपद- पुत्रकी वडी तारीफ की है। कहता है कि आपका ही चेला है । वडा काइयां है और वही है सेनाको सजाके नाकेपर खडी करनेवाला। सवोको भीम और अर्जुनके समान ही युद्धमे वहादुर भी कह दिया है "भीमार्जुन समायुधि", अन्तमें सभीको यह भी कह दिया कि महारथी ही है-"सर्व एव महारथा" । क्या ये एक बातें भी अपनोके वारेमे उसने कही है ? और अगर कोई यह कहनेकी हिम्मत करे कि शत्रुयोकी यह वडाई तो सिर्फ अपने लोगोको उत्तेजित करनेके ही लिये है, तो यही बात "अपर्याप्त" श्लोकके वारेमे भी क्यो नही लागू होती? दरअसल तो उसके दिलपर पाडवोका आतक छाया हुआ था। फिर वैसा कहता क्यो नही ? एक वात और देखिये। उसके कह चुकनेपर "तस्य सजनयन्हपं" इन वारहवें श्लोकमे यह कहा गया है कि दुर्योधनके भीतर बखूबी हर्ष पैदा करनेके लिये भीष्मने शख वजाया। जरा गौर कीजिये कि "उसके हर्पको वढानेके लिये" कहनेके वजाय यह कहा गया है कि "उमका हर्प पैदा करनेके लिये"-"हर्ष सजनयन्"। जन धातुका अर्थ पैदा करना ही होता है न कि वढाना। जो चीज पहलेसे न हो उसीको तो पैदा करते है। जो पहलेसे ही हो उसे तो केवल वढा सकते है । इमीसे पता लग
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