अपर्याप्तं तदस्माकम्" एव हि"। लेकिन यह भी क्या अजीब बात है कि जोई सेनापति और सेनाका रक्षक हो उसीकी रक्षाके लिये शेष सबोको आदेश दिया जाय कि आप लोग 'केवल भीष्म'--'भीष्ममेव'-~की रक्षा करे । मालूम होता है, दूसरा कोई भी इससे जरूरी काम न था। मगर जिस फौजके मेनापतिके ही बारेमे यह बात हो वह फौज क्या जीतेगी खाक ? ऐसा वही नही देखा सुना कि फौजके सभी प्रमुख योद्धा केवल सेनापतिको ही रक्षा करे। मगर भीमके बारेमे तो यह बात न थी। उन्हे कुछ सोचना- विचारनाथोडेही था कि किसपर अस्त्र चलाये किसपर नही। इस मामलेमे तो वे ऐसे थे कि मीनमेख करना जानते ही न थे । बल्कि मीनमेखसे चिढते थे। वे तो युधिष्ठिरको कोसा करते थे कि आपको बुद्धिकी वदहजमी और वर्मकी बीमारी लगी है, जिससे रह-रहके मीनमेख निकाला करते है । महाभारतमें गीताके बादवाले अध्यायमे ही यह वात लिखी है कि भीष्मने साफ ही कह दिया कि युधिष्ठिर, जाओ, जीत तुम्हारी ही होगी। उनने यह भी कहा था कि क्या करूँ मजबूरी है इसीलिये लडंगा तो दुर्यो- धनकी ही ओरसे, हालांकि पक्ष तुम्हारा ही न्याययुक्त है। इसीलिये तुम्हारे सामने दवना पडता है और सिर उठा नही सकता। क्या ऐसे ही 'आ फंसे'वाले सेनापतिसे जीत हो सकती थी ? और क्या इतनी वात भी दुर्योधन, समझता न था ? खूबी तो यह है कि न सिर्फ भीष्म, किन्तु द्रोण, कृप और गल्य भी इसी ढगके थे और यह बात उसे ज्ञात न थो यह कहने की हिम्मत किसे है ? विपरीत इसके भीम अपने पक्षके लिये मर मिटनेवाला था, उचित अनुचित सव कुछ कर सकता था। इसीलिये तो दुर्योधनकी कमरके नीचे उसने गदा मारी जो पुराने समयके नियमोके विरुद्ध काम था और इसीलिये अपने चेले दुर्योधनकी कमर टूटनेपर वलराम विगड खडे भी हुए थे कि भीमने अनुचित काम किया। मगर भीमको इसकी क्या पर्वा थी ? ।
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