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३१० गीता-हृदय सामने है और पाडवोकी हर तरहसे दूर है । यो भी दूर खडी है और उसकी चर्चा भी पहले हो चुकी है। फिर भी उमीको सामने और प्रत्यक्ष कहता है । 'इदम्' कहता है और अपनीको परोक्ष और दूरकी। क्यो? इसीलिये न, कि उसके भीतर आतक छाया है, उसे डर और घबराहट है और भूतकी तरह पाडवोकी सेना उसकी छातीपर जैसे सवार है ? इसी घबराहट में अपनी फौज जैसे भूलीसी हो। आँसोके सामने और दिल दिमागपर तो पाडवोकी फौज ही नाचती है। फिर कहे तो क्या कहे ? अपनी फौज और अपनी शेखी तो भूलसी गई है । यह बात इतनी साफ है कि कुछ पूछिये मत । दूसरी वात है “भीष्माभिरक्षित" और "भीमाभिरक्षित" शब्दोकी । यह तो मवोको मालूम था ही और दुर्योधन भी अच्छी तरह जानता था कि जहाँ भीम एकतरफा और आँख मूंदके लडनेवाले है, वहां भीष्म दो नावपर चढनेवाले और सोच-विचारके लडनेवाले है। इसमे कई वाते हैं। महाभारत पढनेवाले जानते है कि कर्ण और भीप्ममे तनातनी थी जिसके चलते कर्णने कह दिया था कि जबतक भीष्म जिन्दा है में युद्धसे अलग रहूँगा। इसीलिये तो गीताके वादवाले पहले ही अध्यायमे लिखा है कि युधिष्ठिरने उसे अपनी पोर मिलानेकी वडी कोशिश की थी। फिर भो न आया यह वात दूसरी है। मगर वही वैर बताके वह उसे फोडना चाहते थे। अगर नही फूटा तो इससे पता लगता है कि वह दुर्योधनका पक्का आदमी था। मगर पक्का तो सेनारक्षक हो नही और दुभाषिया हो सेनापति, यह क्या कमजोरीकी वात नही है ? इसीसे तो दुर्योधनको डर था। मगर भीमके वारेमे कोई ऐसी बात न थी। वह यह भी जानता था कि शिखडीसे भीष्मको खतरा है। इसीलिये इस श्लोकके बादके श्लोकमें ही दुर्योधन सवोसे कहता है कि आप लोग सबके सब सिर्फ भीष्मको ही बचायें-"भीष्ममेवाभिरक्षतु भवन्त सर्व