३०६ गीता-हृदय सर्वत्र मम पश्यति योऽर्जुन । मुग वा यदि वा दुख म योगी परमोमत (६।२६-३२)। इनका पागय यह है कि "जिगका मन सब तरफ हटके आत्मा- ग्रा-में लोन हो गया है और जो मर्वत्र समदर्शी है (ममदर्शनका पूरा विवेचन पहले किया गया है। वह अपने पापको नभी पदार्थोमें और पदार्थों को अपने आपमें ही देखता है। इस प्रकार जो भगवानको भा नर्वनामो पदाथों मे-देखता है और पदार्योंको भगवानमें, वह न तो भगवान ब्रह्म-ने जरा भी जुदा हो नकता है और न भगवान ही उसमे जुदा हो सकता है-दोनो एक ही जोहो गये-जो योगो सभी पदार्थों में रहनेवाले-पदार्थोके रग-रगमे रमनेवाले-एक ही भगवानको अपनंने जुदा नहीं देवता, वह चाहे किसी भी हालतमे रहे, फिर भी परमात्माम ही रमा हुमा रहता है। जो योगी किमी भी प्राणी या पदार्थके मुगको अपना ही समझता है, अनुभव करता है, वही सर्वोत्तम है।" इसो ज्ञानके बारेमे पुनरपि गीता कहती है कि "उसे हासिल करके फिर इस प्रकार भूलभुलैयामे हर्गिज न पडोगे। तव हालत यह होगी कि ससारके सभी पदार्योको अपने आपमे देखोगे और मुझमे भी-अर्थात् तुममें, हममें ---परमात्मामे---और इस जगत्मे कोई विभिन्नता रहेगी ही नहीं-सभी एक ही बन जायेंगे"-"यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेव यास्यसि पाण्डव । येन भूतान्यशेपेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि" (४१२५) । हमने शुरूमें ही कर्मोके भेदोके निरपणके प्रसगमे बता दिया है कि श्रागे बढते-बढते सभी भौतिक पदार्थों और परमात्माके साथ आत्माको तन्मयता कैसे हो जाती है। वही वात गीता बार-बार कहती है। इसी- लिये जो प्रत्येक शरीरमे प्रात्माको जुदा-जुदा मानते है वह तो गीतासे 'अनन्त दूरीपर है। उनसे और गीताधर्मसे कोई ताल्लुक है नहीं। सबकी एकता--एकरसता के पहले सभी शरीरोकी आत्माकी एकता तो
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