३०४ गीता-हृदय कहते कि "उस भक्तिसे ही मुझे बखूबी जान लेता है और उसके बाद ही मेरा रूप बन जाता है"। जानना तो ज्ञानसे होता है, न कि दूसरी चीजसे। इससे पूर्वके श्लोक "ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा" आदिमे उसे ब्रह्मरुप कहके समदर्शनका ही वर्णन किया है। समदर्शन तो ज्ञान ही है यह पहले ही कहा गया है । यहाँ उसी समदर्शनको भक्ति कहा है। इस सम्बन्धमें और बाते आगे लिखी है। इससे इतना सिद्ध हो गया कि जब ब्रह्म हमी है ऐसा अनुभव करते है, तो प्रेमके प्रवाहके लिये पूरा स्थान मिलता है और उसका अवाध स्रोत उमड पडता है । क्योकि वह प्रवाह जहां जाके स्थिर होगा वह वस्तु मालूम हो गई। मगर निषेधात्मक मनोवृत्ति होनेपर ब्रह्म हमसे अलग या दूसरी चीज नहीं है, ऐसी भावना होगी। फलत इसमें प्रेम-प्रवाहके लिये वह गुजाइश नहीं रह जाती है। मालूम होता है, जैसे मरुभूमिकी अपार बालुका-राशिमें सरस्वतीकी धारा विलुप्त हो जाती है और समुद्र- तक पहुंच पाती नहीं, ठीक वैसे ही, इस निषेधात्मक बालुका-राशिमें प्रेमकी धारा लापता हो जाती और लक्ष्यको पा सकती है नहीं। यही कारण है कि विधि-भावना ही गीतामें मानी गई है। भक्तिकी महत्ता भी इसी मानीमें है। सर्वत्र हमी हम और लोकसंग्रह अब जरा जगत्के बारेमे भी देखे। यहाँ भी यह जगत् तो ब्रह्म ही है ऐसा विधिरूप ज्ञान ही गीताको मान्य है। क्योकि इसमे हमारे कर्मोके लिये, लोकसग्रहके लिये पूरी गुजाइश रहती है। निषेधमे यह बात नही रहती। मालूम पडता है कि निठल्ले जैसा बैठनेकी बात आ जाती है । आज जो वेदान्तके अद्वैतवादमें इस निषेध पक्ष या ससारके मिथ्यात्वके ही पहलूपर जोर देनेके कारण लोगोमें अकर्मण्यता प्रा गई है वह गीताधर्म
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