गीता-हृदय - 1 , करती है तथा निरागा हो जाती है वहीं दिलकी मन है। वह भी मामक फलस्वरूप कम हो जाती है, मिटने लगती। काम माग्ने-गन्ते नफरता- विफलताका मामना वारबार होता है जिगगे हिम्मत होती है, बटनी।। इसपर आगे मन्यान और त्याग प्रकरण प्रयाग में मिलेगा। उसीके बाद कर्मोकी तीगरी मोटी पानी है-यह तीमा दर्जा नीचेका न होके ऊँचेका है, उलटा है। इसलिये तीनरा दर्जा नुनये किलीको भ्रम नहीं होना चाहिये । पहली दो नीदियोको पार कर लो बाद ही इस तीसरीपर पांव देते है, दे सकते है। जब दिल और दिमाग पवित्र हो जाते है तो इन्मान कुछ ऊपर उठना और उगाी दृष्टि विन्तृत होते लगती है । जहां पहले अपने परायेको दात होने वह मानिा रहती है और कदम-कदमपर पदार्थीका बँटवाराना प्रतीत होता है कि यह अपना है और यह दूसरेका है, तहां ऊपर उठने पर यह विभाग, यर बटवाग मिटने लगता है और अनेकतामे एकता नजर आने लगती है। चाहे इने "वसुपैव कुटुम्बकम्" कहिये, या नमष्टि कहिये । रंगे ही गीताने अपने ही समान सवोके--प्राणिमारो-- सुगन्दु पोका अनुभव या "प्रात्मो- पम्य दृष्टि" भी नाम दिया है और "ममत्वबुद्धि" भी कहा है । लेकिन सबका माराय है समुचितसे विस्तृतकी ओर, परिमितमे अपरिमितकी तरफ, पिंडसे ब्रह्माण्डकी ओर और व्यष्टिमे नमप्टिकी तरफ जाना । इमोलिये इसे ऊपर उठना कहते है। इससे यह होता है कि व्यक्तित्व, शरिमयत या 'पर्मनलिटी' (personality) और व्यक्तिवादिता या 'इन्डिविजुअलिटी' (individuality) कालोप समष्टि या विराट्के भीतर हो जाता है-'इन्डिविजुअलिटी' मिल जाती है 'कलेक्टिविटी' (collectivity) में, समष्टि भावमे और मनुष्य अपने पाप- को विस्तृत ससारका एक अविच्छिन्न अश ममझने लगता है। जिस तरह शरीरके किसी भी भगको उससे जुदा किये जानेपर असह्य पीडा होती है, )
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