ज्ञान और अनन्य भक्ति ३०३ ही है न ? मुझसे बढके किसी और पदार्थको वह समझता ही नही। इसीलिये निरन्तर मुझीमे लगा हुआ मस्त रहता है"--"चतुर्विधा भजन्ते मा जना सुकृतिनोऽर्जुन। आतॊ जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ। तेषा ज्ञानी नित्त्ययुक्त एकभक्तिविशिप्यते। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमह स च मम प्रिय । उदारा सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्। आस्थित. सहि युक्तात्मा मामेवानुत्तमा गतिम्” (७।१६-१८) । ज्ञान और अनन्य भक्ति इस प्रकार हमने देखा कि जिस भक्तिके नामपर बहुत चिल्लाहट और नाच-कूद मचाई जाती है और जिसे ज्ञानसे जुदा माना जाता है वह तो घटिया चीज है । असल भक्ति तो अद्वैत भावना, 'अह ब्रह्मास्मि'-मै ही ब्रह्म हूँ—यह ज्ञान ही है। इसीलिये "अनन्याश्चिन्तयन्तो मा ये जना पर्युपासते। तेषा नित्याभियुक्ताना योगक्षेम वहाम्यहम्' (२२) मे यही कहा गया है कि "भगवानको अपना स्वरूप-अपनी आत्मा- ही समझके जो उसमे लीन होते है, रम जाते है तथा बाहरी बातोकी सुध- उनकी रक्षा और शरीर यात्राका काम खुद भगवान करते है।" यहाँ अनन्य शब्दका अर्थ है भगवानको अपनेसे अलग नही मानने- वाले। इसीलिये अगले श्लोक "येऽप्यन्य देवताभक्ता" (२३) मे अपनेसे भिन्न देवता या आराध्यदेवकी भक्तिका फल दूसरा ही कहा गया है। "अनन्यचेता सतत यो मा स्मरति नित्यश । तस्याह सुलभ पार्थ नित्य- युक्तस्य योगिन." (८।१४) मे भी यही बात कही गई है कि "जो भगवानको अपनी आत्मा ही समझके उसीमे प्रेम लगाता है उसे भगवान सुलभ है- कही अन्यत्र ढूँढ़े जानेकी चीज है नहीं।" यदि असल और सर्वोत्तम भक्ति ज्ञानरूप नहीं होती, तो "भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत । ततो मा तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्' (१८१५५) श्लोकमे क्यो बुध नही
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