३०२ गीता-हृदय 1 , . मजा किरकिरा हो रहा है, आत्म-हत्या-शरीरका नाश-या इन्द्रियोका नागतक कर डालते है। क्यो ? इसीलिये न, कि आत्मा तो अपने आप ही है, अपनेसे अत्यन्त नजदीक है ? यही बात याज्ञवल्क्यने मैत्रेयीसे वृहदारण्यकमे कही है और सभीके साथके प्रेमोको परस्पर मुकाविला करके अन्तमे अात्मामे होनेवाले प्रेमको सबसे बडा--सवसे बढके- यो ठहराया है-"नवा अरे सर्वस्य कामाय सर्व प्रिय भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्व प्रिय भवति" (४।५।६) । प्रेम और अद्वैतवाद यदि ब्रह्म या परमात्मामे असली प्रेम करना है जो सोलह आना हो और निर्बाध हो, अखड हो, एक रस हो, निरन्तर हो, अविच्छिन्न हो, तो आत्मा और ब्रह्मके वीचका भेद मिटाना ही होगा-उसे जरा भी न रहने देकर दोनोको एक करना ही होगा। यदि सच्ची भक्ति चाहते है तो दोनोको-आशिक और माशूकको-एक करना ही होगा। यही असली भक्ति है और यही असली अद्वैतज्ञान भी है। इसीलिये गीताने भक्तोके चार भेद गिनाते हुए अद्वैतज्ञानीको भी न सिर्फ भक्त कहा है, किन्तु भगवान- की अपनी आत्मा ही कह दिया है-अपना रूप ही कह दिया है,-"ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्" (७१८) । जरा सुनिये, गीता क्या कहती है। क्योकि पूरी बात न सुनने में मजा नही पायेगा। गीताका कहना है कि, "चार प्रकारके सुकृती-पुण्यात्मा–लोग मुझमें--भगवानमें-मन लगाते, प्रेम करते है। वे है दुखिया या कष्टमें पडे हुए, जानकी इच्छावाले, सम्पत्ति चाहनेवाले और ज्ञानी। इन चारोमे ज्ञानी तो वरावर ही मुझीमें लगा रहता है। कारण, उसकी नजरोमे तो दूसरा कोई हई नही। इसी- लिये वह सवोसे श्रेष्ठ है। क्योकि वह मेरा अत्यन्त प्यारा है और मै भी उसका वैसा ही हूँ। यो तो सभी अच्छे ही है, मगर ज्ञानी तो मेरी आत्मा धन- -
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