ब्रह्मज्ञान और लोकसग्रह २६९ मायाको ही क्षेत्र कहनेका तात्पर्य है । व्यष्टि शरीर तो उसके भीतर आई जाते है । शुरूमे जो महाभूत, अहकार आदिका उल्लेख है वह इसी बातका सूचक है। ब्रह्मज्ञान और लोकसंग्रह जहाँतक गीताका ताल्लुक इस मिथ्यात्वके सिद्धान्तसे और तन्मूलक अद्वैतवादसे है उसे बतानेके पहले यह जान लेना जरूरी है कि ससारको मिथ्या माननेके बाद अद्वैतवाद एव अद्वैततत्त्वके ज्ञानका व्यवहारमें कैसा रूप होता है। क्योकि गीता तो केवल एकान्तमे बैठके समाधि लगाने- वालोके लिये है नही । वह तो व्यावहारिक ससारका पारमार्थिक दुनियाके साथ मेल स्थापित करती है। उसकी नजरमे तो अद्वैतब्रह्मके ज्ञानके बाद ससारके व्यवहारोमे खामखा रोक होती नही। यह ठीक है कि कुछ लोगोकी मनोवृत्ति बहुत ऊँचे चढ जानेसे वे ससारके व्यवहारसे अलग हो जाते है। मगर ऐसे लोग होते है कम ही। ज्यादा तो ऐसे ही होते है जो लोकसग्रहका काम करते रहते ही है । गीताकी इसी दृष्टिका मेल अद्वैतवादसे होता है। इसीलिये पहले उस अद्वैतवादका इस दृष्टिसे जरा विचार कर लेना जरूरी है । असलमें ब्रह्म ही सत्य है, जगत् मिथ्या है और आत्मा ब्रह्मरूप ही है, उससे पृथक् नहीं है, इस दृष्टिके, इस विचारके दो रूप हो सकते है। या यो कहिये कि इस विचारको दो प्रकारसे प्रकाशित किया जा सकता है। रस्सीमे साँपका भ्रम होने के बाद जब चिराग आने या नजदीक जाने- पर वह दूर हो जाता तथा सॉप मिथ्या मालूम पडता है, तो इस बातको प्रकाशित करते हुए या तो कहते है कि यह तो रस्सी ही है, या सांप-वाँप कुछ भी नही है। यदि दोनोको मिलाके भी बोले तो यही कहेंगे कि यह तो रस्सी ही है और कुछ नही, या रस्सीके अलावे सॉप-वाँप कुछ नही है । .
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