वेदान्त, सांख्य और गीता २९७ . रान्तरसे यह बात और अध्यायोमे भी मनके निरोध या आत्मसयमके नामसे बार-बार आई ही है । पतजलिने इसी बातको “योगश्चित्तवृत्ति निरोध" (११२) तथा “अभ्यास वैराग्याभ्या तन्निरोध' (२।१२) आदि सूत्रोमे साफ ही कहा है । गीताके छठे अध्यायमें, मालूम होता है, यह दूसरा सूत्र ही जैसे उद्धृत कर दिया गया हो "अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते" (६।३५)। चौथे अध्यायके "आत्मसयमयोगाग्नौ" (४१२७) मे तो साफ ही मनके सयमको ही योग कहा है । और स्थानोमे भी यही वात है । पाँचवेंके २७, श्लोकोमे, छठेके १०-२६ श्लोकोमें तथा आठवेके १२, १३ श्लोकोमे तो साफ ही योगके प्राणायामकी बात लिखी गई है । अठारहवेके ५१-५३ श्लोकोमे भी जिस ध्यानयोगकी बात आई है, उसीको उल्लेख पतजलिने “यथाभिमतध्यानाद्वा" (११३५), “यमनिय- मासन प्राणायाम प्रत्याहार ध्यानधारणासमाधयोऽष्टावगानि" (२।२६) तथा "तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम्' (३२) सूत्रोमे किया है । वेदान्त, सांख्य और गीता साख्य और वेदान्तका तथा उनके प्रवर्तक आचार्योंका भी तो नाम आया ही है। साख्यके प्रवर्तक कपिलका उल्लेख “कपिलोमुनि" (१०।२६) में तथा वेदान्तके प्राचार्य व्यासका “मुनीनामप्यह व्यास (१०।३७) मे आया है। पहले कपिलका और पीछे व्यासका। इन दर्शनोका क्रम भी यही माना जाता है। इसी प्रकार "वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्" (१५।१५) मे वेदान्तका और "साख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि" (१८।१३) तथा "प्रोच्यते गुणसख्याने" (१८१६) मे साख्यदर्शनका उल्लेख है। कृतान्त और सिद्धान्त शब्दोका एक ही अर्थ है । इसलिये 'साख्ये कृतान्ते'का अर्थ है 'साख्यसिद्धान्तमे।' साख्यवादी भी तो आत्माको अकर्ता, केवल तथा निर्विकार मानते है और यही बात यहाँ लिखी गई है। इसी प्रकार 19
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