२६४ गीता-हृदय फिर मायाका क्या कहना ? हमे तो यही जानना है कि वह निर्लेप है या नहीं। विचारसे तो सिद्ध भी हो जाता है कि वह सचमुच निर्लेप है। नही तो भरपेट खाके सोनेपर भूखा क्यो नजर अाता ? खाना तो पेटमें मौजूद ही है न ? इसका तो एक ही उत्तर है कि पेटमें खाना भले ही हो, मगर आत्मा तो उससे निर्लेप है। वह उससे चिपके, उसे अपना माने तब न ? जगनेपर ऐसा मालूम पडता था कि अपना मानती है । मगर सोनेपर साफ पता लग गया कि वह तो निराली है, मौजी है । उसे इन खुराफातोसे क्या काम ? वह तो लीला करती है, नाटक करती है। इसलिये जब चाहा छोडके अलग हो गई और निर्लेपका निर्लेप है सपने में भी एकको छोडके दूसरेपर और फिर तीसरेपर जाती है और अन्तमें सबको खत्म करती है। वहाँ कुछ नही होनेपर भी सब कुछ बनाके बच्चोके घरौंदेकी तरह फिर चौपट कर देती है। असग जो हरी। उसे न किसी मददकी जरूरत है और न सूर्य-चाँद या चिरागकी ही। वह तो खुद सब कुछ कर लेती है। वह तो स्वय प्रकाश रूप हो है। वृहदारण्यक उपनिषदके चौथे अध्यायके तीसरे ब्राह्मणमें यह वर्णन इतना सरस है कि कुछ कहा नहीं जाता। वह पढने ही लायक है। वहाँ कहते है कि "स यत्र प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतोमात्रामुपादाय स्वय विहत्य स्वय निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्राय पुरुष स्वय ज्योति- भवति ।। न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ रथानथयोगान्पथ सृजते, न तत्रानन्दा मुद प्रमुदो भवन्त्यथानन्दान्मुद प्रमुद सृजते, न तत्र वेशान्ता पुष्करिण्य स्रवत्योभवन्त्यथवेशान्तान् पुष्करिणी स्रवन्ती सृजते सहि कर्ता ।१०। स वा एष एतस्मिन्सम्प्रसादे रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्य च पापं च पुन प्रतिन्याय प्रतियोन्याद्रवति स्वप्नायैव स य- तत्र किञ्चित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसङ्गोह्यय पुरुष (१५)।" .
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