निर्विकारमें विकार २६३ और वृक्षकी परम्परा अनादि है । अक्लमे तो यह बात आती नहीं कि पहले बीज कहें या वृक्ष , क्योकि वृक्ष कहनेपर फौरन सवाल होगा कि वह तो वीजसे ही होता है । इसलिये उससे पहले वीज जरूर रहा होगा। और अगर पहले बीज ही माने, तो फौरन ही वृक्षकी वात आ जायगी। क्योकि बीज तो वृक्षसे ही होता है । कब, क्या हुआ यह देखनेवाले हम तो थे नहीं। हमें तो अभी जो चीजे है उन्हीको देखके इनके पहले क्या था यही ढूँढना है और यही बात हम करते भी है । मगर ऐसा करनेमे कही ठिकाना नही लगता और पीछे वढते ही चले जाते है। यही तो है अनादिताकी वात । इसी प्रकार जगत् और ब्रह्मके सम्बन्धमे मायाकी कल्पना करनेमे भी हमे अनादिताकी शरण लेनी ही पड़ती है। हमारे लिये कोई चारा है नहीं। दूसरी चीज. मानने या दूसरा रास्ता पकडनेमे हम आफतमे पड जायँगे और निकल न सकेगे। हमे तो वर्तमानको देखके पीछेकी बाते सोचनी है, उनकी कल्पना करनी है, जिससे वर्तमान काम चल सके, निभ सके। जोई चाहे मान सकते नहीं। यही तो हमारी परीशानी है, यही तो हमारी सीमा (limitation) है। किया क्या जाय ? इसीलिये मीमासादर्शनके श्लोकवात्तिकमे कुमारिलको कहना पडा कि हम तो सिर्फ इतना ही कर सकते है कि दुनियाकी वर्तमान व्यवस्थाके वारेमे यदि कोई शक-शुभा हो तो तर्क-दलीलसे उसे दूर करके अडचन हटा दे। हम ऐसा तो हर्गिज कर नहीं सकते कि बेसर-पैरकी वाते मानके वर्तमान व्यवस्थाके प्रतिकूल जायें-"सिद्धानुगममात्र हि कर्तुं युक्त परीक्षकै । न सर्वलोकसिद्धस्य लक्षणेन निवर्त्तनम्" (१२४१३३) । निर्विकारमें विकार इसीलिये निर्विकारमें विकार या मायाका सम्बन्ध साफ ही है। इसमें झमेलेकी तो गुजाइश हई नही। सारा ससार जब उसीमें है तो
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