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२६० गीता-हृदय मत्य मानके सपनेको मिथ्या मानते है । जागृतकी चीजे हमारे खयालमे नही और सपनेकी झूठी है। इसीलिये खामखा दोनोकी दो सत्ता भी मान बैठते है। लेकिन वेदान्ती तो जागृतको सत्य मान सकता नहीं। इसीलिये लोगोके सन्तोषके लिये उसने व्यावहारिक और प्रातिभामिक ये दो भेद कर दिये । इस प्रकार काम भी चलाया। विचार करने या लिखने-पढनेमे आसानी भी हो गई। आखिर अद्वैतवादी वेदान्ती भी जागृत और स्वप्नकी वात उठाके और स्वप्नेका दृष्टान्त देके लोगोको ममझायेगा कैसे, यदि दोनोको दो तरहके मानके ही शुरु न करे ? मायावाद जो लोग ज्यादा समझदार है वह वेदान्तके उक्त जगत-मिथ्यात्वके सिद्धान्तपर, जिसे अध्यासवाद और मायावाद भी कहते है, दूसरे प्रकारसे आक्षेप करते है । उनका कहना है कि यदि यह जगत् भ्रममूलक है और इसीलिये यदि इसे भगवानकी मायाका ही पसारा मानते है, क्योकि माया कहिये, भूल या भ्रम कहिये, वात तो एक ही है, तो वह माया रहती है कहाँ ? वह भ्रम होता है किसे ? जिस प्रकार हमें नीद आनेसे सपने में भ्रम होता है और उलटो बाते देख पाते हैं, उसी तरह यहाँ नीदकी जगह यह माया किसे सुलाके या भ्रममे डालके जगत्का दृश्य खडा करती है और किसके सामने ? वहाँ तो सोनेवाले हमी लोग है। मगर यहाँ ? यहाँ यह मायाकी नीद किसपर सवार है ? यहाँ कौन सपना देख रहा है ? आखिर सोनेवालेको ही तो सपने नजर आते है। निर्विकार ब्रह्म या आत्मामे ही मायाका मानना तो ऐसा ही है जैसा यह कहना कि समुद्रमे आग लगी है या सूर्य पूर्वसे पच्छिम निकलता है। यह तो उलटी बात है, असभव चीज है। ब्रह्म या पात्मा और उसीमे माया ? निर्विकारमे विकार ? यदि ऐसा माने भी तो सवाल है कि ऐसा हुआ क्यो ? .