गीता-हुवय ८ ? स्वम और मिथ्यात्ववाद जो लोग इन वातोमे अच्छी तरह प्रवेश नहीं कर पाते वह चटपट कह बैठते है कि सपनेकी बात तो साफ ही झूठी है। उसमें तो शककी गुजाइश है नही। उसे तो कोई भी सच कहनेको तैयार नहीं है। मगर ससारको तो सभी सत्य कहते है। सभी यहांकी बातोको सच्ची मानते है। एक भी इन्हें मिथ्या कहनेको तैयार नहीं। इसके सिवाय सपनेका ससार केवल दोई-चार मिनट या घटे-पाध घटेकी ही चीज है, उतनी ही देरकी खेल है-यह तो निर्विवाद है। सपनेका समय होता ही आखिर कितना लम्बा ? मगर हमारा यह ससार तो लम्बी मुद्दतवाला है, हजारो लाखो वर्ष कायम रहता है । यहाँतक कि सृष्टि और प्रलयके सिलसिलेमें वेदान्ती भी ऐसा ही कहते है कि प्रलय बहुत दिनो वाद होती है और लम्बी मुद्दतके वाद ही पुनरपि सृष्टिका कारबार शुरू होता है। गीता (८।१७- १६) के वचनोसे भी यही बात सिद्ध होती है। फिर सपनेके साथ इसकी तुलना कैसी ? यह तो वही हुआ कि “कहाँ राजा भोज, और कहाँ भोजवा तेली !" मगर ऐसे लोग जरा भूलते है । सपनेकी बातें झूठी है, झूठी मानी जाती है सही। मगर कव ? सपनेके ही समय या जगनेपर ? जरा सोचें और उत्तर तो दे ? इस अपने ससारको थोडी देरके लिये भूलके सपने में जा बैठे और देखें कि क्या सपनेके भी समय वहाँकी देखी-सुनी चीजें झूठी मानी जाती है। विचारनेपर साफ उत्तर मिलेगा कि नहीं। उस समय तो वह एकदम सच्ची और पक्की लगती है। उनकी झुठाईका तो वहाँ खयाल भी नहीं होता। इस वातका सवाल उठना तो दूर रहे । हाँ, जगनेपर वे जरूर मिथ्या प्रतीत होती है। ठीक उसी प्रकार इस जागृत, ससारकी भी चीजें अभी तो जरूर सत्य प्रतीत होती है। इसमें
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