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१० गीता-हृदय दी जाये तो दोनोके ही तलेका अँधेरा जाता रहता है। यही बात यहीं भी हो जाती है । कर्म, अकर्म, कर्तव्य, अकत्तव्य या कम योग और उसके सन्यास जैसे पेचीदे एव गहन मामलमे जग भी कमी, जग भी गरवाडी वडी ही खतरनाक हो सकती है। यही कारण है कि दिल और दिमागको मिलाके गीताने उस खतरेको खत्म कर दिया है। कर्मके भेद गीताके मुताविक फर्म, निया या अमल (action) की कमीटिया है। इनमें सबसे पहली या नीचंकी नीडीमे वे मनी कर्म (काम) प्रा जाते है जो जीवनके लिये, या यो कहिये कि नामारिक वातो लिये जरूरी है और जिनके विना न तो कोई जिन्दा रह सकता है और न दुनिया- का काम ही चल सकता है । गोताके "कार्यते एवग फर्म" (३१५), "शरीरयानापि च ते" (315) श्रादि वचन इस वातफे पोपक है । जब यही कर्म इसी सयालसे किये जाते है कि हमाग, करनेवालेका या दुनिया- का काम चले, सब कुछ कायम रहे, चालू से और जव करनेवालेको अपने और परायेका विचार रहता है, तभी ये कम मवमे निचली नीदीमे पाते है। उस दशामे ये सोलहो पाना कर्मके रूपमे रहते है और इनका नतीजा भुगतना होता है। जिनके बारेमे धर्मगाम्यो और पोयीपुराणोमे बहुत कुछ लिखा गया है, जिन्हें सुख, दुस और नरक, स्वर्ग आदि देनेवाले कहा गया है वे यही कर्म है । भाग्य, देव, प्रारब्ध, सचित और तकदीर आदि नाम भी इन्ही पहली सीढीवालोको दिये गये है। जब बातचीतमे कर्मका फेर कहते है तो इन्हीसे मतलव होता है। इनमे स्वार्थ और परार्थ- अपने लिये और दूसरोके लिये--का सवाल सदा लगा रहता है और वह कभी इनका और करनेवालोका पिंड छोटता नहीं। दूसरी सीढी अाती है उन कर्मोकी जो मनकी, हृदयकी, अन्त करणको - .