२७६ गीता-हृदय उन्हें तो माने लेती है । लेकिन जो नही मिलती है वहाँ स्वतत्र वात कहती है। वेदान्तने तो माना ही है कि पुरुष या भगवानने ही पहले सोचा, पीछे ससार बनाया। वेदान्तदर्शनके दूसरे सूत्र “जन्माद्यस्य यत"में साफ ही माना है कि भगवानसे ही आकाशादि पदार्थोका जन्म होता है। इसलिये वही कारण है । यदि वह कारण न होता तो उसे सिद्ध करना असभव था। उसकी तब जरूरत ही क्या थी? वेदान्तने जीवको भग- वानका रूप ही माना है और दोनोको ही पुरुष कहा है। हां, व्यष्टि और समष्टिके भेदके हिसावसे पर पुरुष एव अपर पुरुष या पुरुष तथा पुरुषो- त्तम यही दो नाम उसने जीव और ईश्वरको अलग-अलग दिये है। गीताने भी “उत्तम पुरुषस्त्वन्य" (१५॥१७) में यही कहा है । इसीलिये "मम योनि" (१४॥३-४) आदिमें पुरुषको ही सृष्टिका पिता और प्रधान या प्रकृतिको माता कहा है। गीता सृष्टि-रचनाको अन्धका खेल नहीं मानती। किन्तु सोच-समझके वनाई चीज (Planned creation) मानती है। सृष्टिका क्रम सोचने-समझनेका यह मतलब नहीं कि चलना, फिरना, उठना, बठना, खेती, गिरस्ती आदि हरेक कामोको हरेक आदमियोंके बारेमें पहलेसे ही तय कर लिया था। यह तो भाग्यवाद (fatalism) तथा 'ईश्वरने जो तय कर दिया वही होगा' (determinism)वाली बात है। फलत इसमें करनेवालोकी जवाबदेही जाती रहती है। वह तो मैशीनकी तरह ईश्वरकी मर्जी पूरा करनेवाले मान लिये जाते है। फिर उनपर जवाबदेही किसी भी कामकी क्यो हो और वे पुण्य-पापके भागी क्यो बनें ? मैशीनकी तो यह बात होती नही और इस काममें वे ठहरे मैशीन ही। सोचने-समझनेका सिर्फ यही प्राशय है कि मूलस्वरूप
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