सृष्टि और प्रलय २७५ न तो किसीसे पैदा होता है और न किसीको पैदा करता है । वह न प्रकृति है, न विकृति । प्रकृति कहते है कारणको और विकृति कहते है कार्यको। वह दोमे एक भी नही है । रह गये ससारके पदार्थ । सो इन्हें तीन दलोमें बाँटा है। पहली है मूल प्रकृति या प्रधान । गीताने इसीको प्रकृति या महद्ब्रह्मके अलावे भूतप्रकृति भी “भूतप्रकृतिमोक्ष च" (१३।३४) में कहा है । अपरा भी कहा है जैसा कि आगे लिखा है। इससे पचभूत पैदा होते है। इसीसे इसे भूतप्रकृति कहा है। यह किसीसे पैदा तो होती नही; मगर खुद पैदा करती है-यह किसीका कार्य नहीं है। इसीलिये इसे अविकृति भी कहा है। दूसरे दलमे महान् आदि सात आ जाते है । इन्हे प्रकृति-विकृति कहा है । ये खुद तो आगेके सोलह पदार्थोंको पैदा करते है। इसीलिये प्रकृति या कारण कहाये । मूल प्रकृतिसे ही ये पैदा होनेकी वजहसे विकृति भी कहे गये। अब इनसे जो सोलह पदार्थ पैदा हुए वह विकृति कहे जाते है । क्योकि वे इनसे पैदा होनेके कारण ही कार्य या विकृति हो गये। मगर उनसे दूसरी चीजे बनती है नहीं। दस इन्द्रियो या पाँच प्राणोसे अन्य पदार्थ पैदा तो होते नही। अन्तःकरण या बुद्धिसे भी नही पैदा होते। चक्षु आदि बाहरी इन्द्रियाँ है और बुद्धि या मन भीतरकी। इसीलिये उसे अन्त करण कहते है। करण नाम है इन्द्रियका। अन्त का अर्थ है भीतरी। गीताने पुरुषको मिलाके यह चार विभाग नही किया है। किन्तु सभी को-चारोको-ही प्रकृति कहके जीव या पुरुषको परा या ऊँचे दर्जेकी और शेष तीनको अपरा या नीचे दर्जेकी प्रकृति "अपरेयमितस्त्वन्या" (७५) आदिमे कहा है । दोनोमें यह दो या चार भेदोका होना कोई खास वात नहीं है। मगर पुरुषको भी प्रकृति कहना जरूर निराला है। क्योकि साख्यने साफ ही कहा है कि वह प्रकृति नहीं है। असलमे गीता वेदान्तदर्शनको ही मानती है, न कि साख्यको। इसीलिये साख्यकी जो बाते वेदान्तसे मिलती हैं
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