श्रद्धा, दिल और दिमाग अन्य परम्पराको स्थान मिल जाता है, क्योकि हृदयमे अन्धापन होता है। इसीलिये उसे दीपककी आवश्यकता होती है और यही काम दिमाग या बुद्धि करती है। विपरीत इसके जव दिमाग या बुद्धिका घोडा बेलगाम सरपट दौडता है और उसपर दिलका दबाव या हृदयका अकुश नही रहता तो नास्तिकता, अनिश्चितता, सन्देह आदिकी काफी गुजाइश होती है। क्योकि तर्क और दलीलको पहरेदार सिपाही जैसा मानते है। इसीलिये वह एक स्थानपर टिका रह सकता नही, अप्रतिप्ठ होता है, स्थान बदलता रहता है-"तर्कोऽप्रतिष्ठा ।" फलत सदाके लिये उसका किसी एक पदार्थपर, एक निश्चयपर जम जाना असभव होता है । अच्छेसे अच्छे तर्कको भी मात करनेके लिये उससे भी जबर्दस्त दलील आ खडी होती है और उसे भी पस्त करनेके लिये तीसरी आती है। इस प्रकार तर्को और दलीलोका तांता तथा सिलसिला जारी रहता है, जिसका अन्त कभी होता ही नही। फिर किसी वातका आखिरी निश्चय हो तो कैसे ? ससारभरकी बुद्धि आजमाके थक जाय, खत्म हो जाय, तभी तो ऐसा हो। मगर बुद्धिका अन्त, परिधि, अवधि या सीमा तो है नही। बुद्धियाँ तो अनन्त है और नई-नई वनती भी रहती है, उनका प्रसार होता रहता है- "बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धय ।" यही कारण है कि दिल और दिमाग दोनोहीको अलग-अलग निरकुश एव वेलगाम छोड देनेकी अपेक्षा गीताने दोनोको एक साथ कर दिया है, मिला दिया है। इससे परस्पर दोनोकी कमीको एक दूसरा पूरा कर लेता है-दिलको कमी या उसके चलते होनेवाले खतरेको दिमाग, और दिमाग- की त्रुटि या उसके करते जिस अनर्थकी सभावना है उसे दिल हटा देता है। इस प्रकार पूर्णता आ जाती है। लालटेन या चिरागके नीचे, उसके अत्यन्त नजदीक अँधेरा रहता ही है। मगर अगर दो लालटेने पास-पास रख
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