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२७२ गीता-हृदय 1 ? यदि ? . यद्यपि यह खयाल हो सकता है कि सवोको दगा तो एकसी नही है। सबोके कर्मों, कर्मफलभोगो तथा अन्य बातोमें भी कोई समानता तो है नही। यहाँ तो "अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत", है । यहां तो "मुडेमुडे मतिभिन्ना तुडे तुडे सरस्वती ।" फिर यह कैसे सभव है कि सभी जीव किसी समय विश्राममे चले जाये और प्रलय हो जाय गीताने ऐसा माना है और अगर दर्शनोने भी इसे स्वीकार किया है तो इससे क्या ? सभीका कार्य-विराम एक ही साथ हो, यह क्या बात ससार कोई एक कारखाना या एक ही कम्पनीके अनेक कारखानोका समूह तो है नही, कि निश्चित समयपर कामसे छुट्टी मिल जाये, या काम बन्द हो जाया करे। यहाँ तो साफ ही उल्टी वात देखी जाती है। तब कल्पक्षय- की बात कैसे मानी जाय ? प्रलय क्यो मानी जाय ? बात तो है कुछ पेचीदगीसे भरी जरूर। मगर असभव नही है । ऐसी बातें दुनियामें होती रहती है। यो तो रातमें विराम और दिन में कामकी बात आमतौरसे सर्वत्र है। यह तो सभीके लिये है। मगर जहाँ दिन रात बडे होते है, जैसे उत्तर ध्रुवके आसपास, वहाँ भी और नहीं तो छे मासका दिन एव उतनी ही लम्बी रात तो होती ही है। प्रकृति की ओरसे जब तूफान आता है, वर्फीली आँधियां चलती है तब तो सबोको एक ही साथ काम बन्द कर देना ही पड़ता है। मगर इन सबोको न भी मानें और अगर इनमे भी कोई गडबड सूझे, तो भी तो यह वात देखी जाती है कि किसी गोल घेरे या रास्तेपर चक्कर लगानेवाले यद्यपि भिन्न- भिन्न चालोवाले होते है, फिर भी ऐसा मौका आता है कि कभी न कभी सभी एक साथ मिल जाते है। फिर फौरन आगे-पीछे हो जाते है । यो तो आमतौरसे आगे-पीछे चलते ही रहते हैं। मगर चक्कर लगाते-लगाते बहुत चक्करोके बाद देर या सबेर एक बार तो सभी इकट्ठे होई जाते है। फिर आगे-पीछे होके चलते-चलते उतनी ही देर बाद दूसरी-तीसरी .