२७० गीता-हृदय क्या था सृष्टि और प्रलय रह गई सृष्टिको प्रारम्भिक दशा तथा प्रलयकी बात । जब सृष्टिका विचार करने लगे तो अन्तमें यह बात उठी कि जव यह चीजें न थीं तो ? आखिर न रहनेपर ही तो वननेका सवाल पैदा होता है। यह भी बात है कि जब ये गुण परस्पर विरोधी है तो यदि ये कभी स्वतत्र वन जायें और एक दूसरेकी न सुनें, तब क्या होगा? यह निरी खयाली वात तो है नही । इनके प्रतिनिधि कफ, वायु, पित्त जव स्वतत्र हो जाते और एक दूसरेकी नही सुनते तो त्रिदोष और सन्निपात होता है और मौत पाती है। वही जो कभी एक दूसरेके अनुयायी थे, आज आजाद हो गये । यही बात गुणोमें हो तो? और जब विश्रामका नियम ससारमें लागू है तो ये भी तो विश्राम करेंगे ही, फिर चाहे देरसे करें या जल्द करें। उस समय क्या हालत होगी और ये किस तरह रहेंगे? और जव विश्राम- का समय पूरा होगा तब कैसे, क्या होगा? इसी ढगके सवाल उठनेपर सृष्टि तथा प्रलयकी बात आ जाती है। दार्शनिकोने इन प्रश्नोपर बहुत ही उधेड-बुन करके जवाब दिया कि जवतक ये गुण ऐसेके ऐसे ही रहेंगे तबतक इनका काम जारी रहेगा ही, तवतक तो चूहा बिल खोदता ही रहेगा। इनका स्वभाव ही जो यह ठहरा। इसीलिये, और कभी तन जानेपर भी, तीनो आजाद हो जायेंगे, समान हो जायेंगे। फिर तो कोई काम हो न सकेगा। विना विषमताके, बिना एक दूसरेकी मातहतीके तो सृष्टिका काम चल सकता है नही और यहाँ तो "नाईकी बारातमें सब ठाकुर ही ठाकुर ठहरे।" फलत आजादी या साम्यावस्थामें ही विश्राम होगा और यह सारा पसारा रुका रहेगा। क्योकि “रहे बाँस न बाजे बांसुरी।" उसी साम्यावस्थाको प्रलय कहते है, प्रकृति कहते है और प्रधान भी कहते हैं। ये गुण उसी हालतमें जाते 1
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