२६२ गीता-हृदय - ही चीजें, तीन ही तत्त्व, तीन ही मूल पदार्थ पाये जायेंगे, पाये जाते है। इन तीनोको उनने सत्त्व, रजस् और तमस् नाम दिया। आमतौरसे इन्हें सत्त्व, रज, तम कहते है। इन्हीका सर्वत्र अखड राज्य है-सर्वत्र बोलबाला है। चाहे स्थूल पदार्थ अन्न, जल, वायु, अग्नि आदिको लें, या क्रिया, ज्ञान, प्रयत्न, धैर्य आदि सूक्ष्म पदार्थोंको लें। सबोमे यही तीन गुण पाये जाते हैं। इसीलिये गीताने साफ ही कह दिया है कि "आकाश, पाताल, मर्त्यलोकम-ससार भरमें-ऐसा एक भी सत्ताधारी पदार्थ नही है जो इन तीन गुणोसे अछूता हो, अलग हो"--"न तदस्ति पृथिव्या वा दिवि देवेषु वा पुन । सत्त्व प्रकृतिजर्मुक्त यदेभि स्यातिभिर्गुण" (१८१४०)। यो तो १८वें अध्यायके ७३से लेकर ४४तकके श्लोकोमें विशेष रूपसे कर्म, धैर्य, ज्ञान, सुख, दुःखादि सभी चीजोका विश्लेषण करके उन्हें त्रिगुणात्मक सिद्ध किया है । सत्रहवे अध्यायके शुरूके २२ श्लोकोमें भी दूसरी अनेक चीजोका ऐसा ही विश्लेषण किया गया है । गीतामे और जगह भी गुणोकी वात पाई जाती है। चौदहवें अध्यायमें भी यही बात है। वह तो सारा अध्याय गुणनिरूपणका ही है। मगर वहाँ गुणोका सामान्य वर्णन है। इसका महत्त्व आगे बतायेगे। यहाँपर प्रारभवाद और परिणामवाद या विकासवादके मौलिक भेदोको भी समझ लेना चाहिये। तभी आगे बढना ठीक होगा। प्रारभवादमें यही माना जाताहै कि परमाणुओके सयोग या जोडसे ही पदार्थोके बननेका काम शुरू होता है-आरभ होता है। वे ही पदार्थोंका आरभ या श्रीगणेश करते है। वे इस तरह एक नई चीज तैयार करते है जैसे सूत कपडा बनाते हैं। जो काम सूतोसे नही हो सकता है वह तन ढकनेका काम कपडा करता है। यही उसका नवीनपन है। मगर परिणामवाद या विकासवादमें तो किसीके जुटने, मिलने या सयुक्त होनेका प्रश्न ही नहीं होता। वहाँ पहलेसे बनी चोज ही दूसरे रुपमें परिणत हो जाती है, विक-
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