५. गुणवाद और अद्वैतवाद कर्मवाद एव अवतारवादकी ही तरह गीतामे गुणवाद तथा अद्वैतवादकी भी बात आई है। इनके सम्बन्धमे भी गीताका वर्णन अत्यन्त' सरस, विलक्षण एव हृदयग्राही है । यो तो यह बात भी गीताकी अपनी नही है। गुणवाद दरअसल वेदान्त, साख्य और योगदर्शनोकी चीज है । ये तीनो ही दर्शन इस सिद्धान्तको मानते है कि सत्त्व, रज और तम इन तीन ही गुणोका पसारा, परिणाम या विकास यह समूचा ससार है-यह सारी, भौतिक दुनिया है । इसी तरह अद्वैतवाद भी वेदान्त दर्शनका मौलिक सिद्धान्त है । वह समस्त दर्शन इसी अद्वैतवादके प्रतिपादनमे ही तैयार हुआ है । वेदान्तने गुणवादको भी अद्वैतवादकी पुष्टिमे ही लगाया है- उसने उसीका प्रतिपादन किया है । फिर ये दोनो ही चीजे गीताकी निजी होंगी कैसे ? लेकिन इनके वर्णन, विश्लेषण, विवेचन और निरूपणका जो गीताका ढग है वही उसका अपना है, निराला है। यही कारण है कि गीताने इनपर भी अपनी छाप आखिर लगाई दी है। परमाणुवाद और प्रारंभवाद असलमे प्राचीन दार्शनिकोमे और अर्वाचीनोमे भी, फिर चाहे वह किसी देशके हो, सृष्टिके सम्बन्धमे दो मत है-दो दल है । एक दल है न्याय और वैशेषिकका, या यो कहिये कि गौतम और कणादका । जैमिनि भी उन्हीके साथ किसी हद्दतक जाते है । असलमे उनका मीमासा- दर्शन तो प्रलय जैसी चीज मानता नहीं। मगर न्याय, तथा वैशेपिक उसे मानते है। इसीलिये कुछ अन्तर पड जाता है। असलमे गौतम और .
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