अवतारवाद २५५ कहते है कि नृसिंहके विना हिरण्यकशिपुको कोई मार नहीं सकता था। कहानी तो ऐसी है कि उसने अपने लिये ऐसा ही सामान कर लिया था। यही वजह है कि भगवानको नृसिंह बनना और उसे मारके फौरन विलीन हो जाना पडा । पीछे नृसिंहका शरीर रह न सका। यही बात राम, कृष्ण आदिके वारेमे भी है । जो जो काम उनने किये, जो पथदर्शन उनसे हुए वे औरोसे हो नहीं सकते थे। मगर उन कामोके लिये कुछ ज्यादा समय चाहता था । इसीलिये वे लोग देरतक रहे । हमारा मतलब यहाँ पौराणिक आख्यानोपर मुहर लगाने या उन्हे अक्षरश सही बतानेसे नहीं है। हमे तो यही दिखाना है कि अवतारोके लिये दार्शनिक युक्तिके अनुसार जो परिस्थिति चाहिये वह सभव है या नहीं। यह बात भी अब साफ होई चुकी कि अवतारोके शरीरोमें भगवानको खिंच पाना ही पड़ता है। अवतार शब्दका तो अर्थ ही है उतरना या खिंच ग्राना। अगर ससारमे बुरे-भले कर्म माया-ममताशून्य जनोतकको अपनी ओर खीच सकते है और उनमे दया या रोष पैदा करवाके हजारो कठिनतम काम उनसे करवा सकते है, तो फिर भगवानका खिच जाना कोई आश्चर्य नहीं है । यदि बाँसुरीका स्वर मृग या साँपको खीच सकता है, उन्हे मुग्ध एव वेताब कर सकता है , यदि बछडेकी आवाज गायको बहुत दूरसे खींच सकती है, यदि किसी प्रेमीका प्रेम हजारोकोससे किसीको घसीट सकता है, तो सृष्टिकी जरूरत या लोगोके भले-बुरे कर्म तथा प्रेम और द्वेष भगवानको उस शरीरमे क्यो नही खीच लेगे ? वैशेषिक दर्शनोने तो स्पष्ट कहा है कि लोगोके कमोंसे ही परमाणुप्रोमे क्रिया जारी होती है और वे आपसमे खिंचके मिलते मिलते महाकाय पृथिवी, समुद्र आदि बना डालते है। फिर प्रलयके समय उलटी क्रिया होनेसे अलग होते-होते वही सबको मिटा देते हैं । ऐसी दशामे उन्ही कर्मोसे भगवानके शरीर क्यो न बन जाये ? उनमे वह खिच जाय क्यो नहीं ? न्याय और
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