२५२ गीता-हृदय 1 , ~ है, शान्ति मिलती है, उनकी चिन्ता और परीशानी मिटती है, उनके कार्मोमें आसानी होती, सहायता पहुँचती है और वे निर्द्वन्द्व विचरते रहते हैं। जैसा कि खुद कृष्णने ही कहा है कि, "लोकसग्रह या लोगोके पथदर्शनके खयालसे भी तो कर्म करना ही चाहिये"-"लोकसग्रहमेवापि सम्पश्यन्कंतु- मर्हसि" (३।२०)। उनने यह भी साफ ही कह दिया है कि, "मेरे अपने लिये तो कुछ भी करना-वरना शेष नहीं है, क्योकि मुझे कोई चीज हासिल करनी जो नहीं है। फिर भी कर्म तो मुस्तैदीसे करता रहता ही हूँ। क्योकि यदि ऐसा न करूँ तो सब लोग मेरीही देखादेखी कर्मोको छोड बैठेगे। नतीजा यह होगा कि सारी गडवड पैदा हो जायगी। फिर तो अव्यवस्था होने के कारण लोग चौपट ही हो जायेंगे "न मे पार्थास्ति कर्तव्य त्रिषु लोकेषु किंचन", आदि (३।२२-२६)। इसके अनुसार तो सभीको अच्छेसे अच्छा पथदर्शन एव नेतृत्व मिलता है, जिससे सभी वातोकी मर्यादा चल पडती है और समाज मजबूती के साथ उन्नतिके पथमें अग्रसर होता है । इस तरह जितनोका कल्याण होता है उतनोका सत्कर्म या उनके पूर्व जन्मके अच्छे कामोका ही यह फल' माना जाना चाहिये। यदि वे आराम पाते और निर्वाध आगे बढते है तो इसमें दूसरोकी कमाई, प्रारब्ध या पूर्व जन्मार्जित कर्मोकी कोई बात आती ही नही। जिन्हें सुख मिलता है, सुविधाये मिलती है उनके अपने ही कर्मोके ये फल हैं, यही मानना होगा। दूसरी ओर ऐसे लोग भी होते है जिन्हें मिटानेके लिये अवतारोके शरीर होते है। जिनकी शतानियते मिटानी है, जिन्हें तवाह-वर्वाद करना है, अवतारोके करते जितनोको पाठ-पाठ आँसू रोने पड़ते है, जो खुद और जिनके सगे-सम्वन्धी भी चौपट होते है, रो-रो मरते है, जिनकी भीपणसे भीपण यत्रणायें होती है, जिनकी स्वेच्छाचारिता बन्द हो जाती और निरकुशता एव स्वच्छन्दतापर पाले पड़ जाते है, उनकी यह दशा होती है .
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