२४० गीता-हृदय पुराने चावल, पुराने पदार्थ नष्ट हो जाते है और नये पैदा हो जाते है। भला कपडेके बारेमे तो नैयायिक दार्शनिक यह भी कहते थे कि साफ ही नये सूत जुटे है। देखनेवाले देखते भी थे। मगर कोठीमे बन्द चावलोमे कौन देखता है कि चावलोके नये परमाणु जुटते और पुराने भागते जाते है। पुराने सूतोकी ही सूरत-शकलके नये सूत कपडे में जुटते है। मगर चावलोके पुराने परमाणुअोमे जो स्वाद या रस होता है उसी स्वाद और रमके नये परमाणुओको पाते और पुरानोकी जगह लेते कौन देखता है ? चावलका स्वाद दस सालके बाद बदलके गेहूँका तो हो जाता नहीं। उसमे स्वाद, रस वगैरह चावलका ही रहता है। इससे मानना पडेगा कि जो नये परमाणु पाये वे चावलके ही स्वाद और रसके थे। वात तो यह भी कम अजीव और वेढगीसी है नहीं। इसीलिये नैयायिकोकी वात अव समझमे आ जाती है—ा सकती है। चावलोके ही परमाणुयो- का-वैसे ही स्वाद, रस, रूप-रेखावालोका-खजाना किसने कहाँ जमा कर रखा है जो वरावर पाते-जाते है ? यह नही कि चावलोकी ही वात हो। गेहूँ, चने, मटर आदिकी भी तो यही बात है । पशु, पक्षी, मनुष्य, खाक, पत्थर सबोकी यही हालत है। सवोमे अपनी ही जातिके परमाणु आ मिलते हैं । फलत यह तो मानना ही पडेगा कि सवोका अलग कोप, खजाना (Stock) कही पड़ा है। मगर पता नहीं कहाँ, कैसे पटा है। यही तो पहेली है। वर्तन या कोठीके मुंह तो ऐसे वन्द है कि जरा भी हवा पा जा न सके। मगर ये अनन्त परमाणु वरावर आते-जाते रहते है। यही तो माया है, जादू है । यहाँतक तो हमने इस पहेलीकी उधेड-चुन दार्गनिक ढगसे की। मगर सवाल हो सकता है कि इसका कर्मवादमे तात्लुक क्या है ताल्लुक है और जरूर है। इसीलिये तो जरा विस्तार से हमने यह बात लिसी है । नहीं तो आगेकी बात समझमे नही पाती। बात यह है कि अनन्त ?
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