ईश्वरवाद २३७ चकित हो जाना पडता है। इसीलिये प्रयोगशालामे बैठके ही यह बात सोचनेकी है। क्योकि दूसरे ढगसे इसपर आमतौरसे लोगोको विश्वास होई नहीं सकता। लोगोके दिमागमे यह बात समाई नही सकती कि प्रतिक्षण हरेक पदार्थके भीतरसे असख्य परमाणु निकलते और भागते रहते है और उनकी जगह ले लेते है नये-नये वाहरसे आके । विज्ञानके प्रतापसे यह बात अव लोगोके दिमागमे आसानीसे आ जाती है। मगर पुराने जमानेमे जब ये वैज्ञानिक यत्र कही थे नही और न ये प्रयोगशालाये थी, तब हमारे दार्शनिक विद्वानोने ये बाते कैसे सोच निकाली यह एक पहेली ही है। फिर भी इसमे तो कोई शक हई नही-यह तो सर्वमान्य बात है कि उनने ये बाते सोची थी, ढुंढ़ निकाली थी। इन्हीके अन्वेषण, पर्यावेक्षण और सोच-विचारने उन्हे अगत्या कर्मवादके सिद्धान्ततक पहुंचाया और उसे माननेको मजबूर किया । या यो कहिये कि इन्हीको ढूंढते-ढूँढते उनने कर्मवादका सिद्धान्त ढूंढ निकाला। , हमारे नैयायिक दार्शनिकोका एक पुराना सिद्धान्त है कि एक ही स्थानमे दो द्रव्योका समावेश नहीं होता। पार्थिव, जलीय आदि सभी पदार्थोको उनने द्रव्य नाम देया है। रूप, रस आदि गुणोमे कोई भी जिन पदार्थोंमे पाये जायँ उन्हीको उनने द्रव्य कहा है । वे यह भी मानते आये है कि कई द्रव्योके सयोगसे नया द्रव्य तैयार होता है । दृष्टान्तके लिये कई सूतोके परस्पर जुट जानेसे कपडा बनता है। सूत भी द्रव्य है और कपडा भी। फर्क यही है कि सूत अवयव है और कपडा अवयवी । सूतोके भी जो रेशे होते है उन्हीसे सूत तैयार होते है। फलत रेशोकी अपेक्षा सूत हुआ अवयवी और रेशे हो गये अवयव । रेशोके भी अवयव होते है और उन अवयवोके भी अवयव। इस प्रकार अवयवोकी धारा- परम्परा-चलती है। उधर कपडेको भी काट-छाँटके और जोड-जाडके कुर्ता, कोट वगैरह बनाते है । वहाँपर कपडा अवयव हो जाता है और .
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