ईश्वरवाद २३५ दिया है। यदि हम उन कुल छे श्लोकोपर गौर करे तो साफ मालूम हो जाता है कि पुराणोका अवतारवाला सिद्धान्त दार्शनिक साँचेमें ढाल दिया गया है । फलत वह हो जाता है बुद्धिग्राह्य । यदि ऐसा न होता, तो विद्वान और तर्क-वितर्क करनेवाले पडित लोग उसे कभी स्वीकार नही कर सकते । मजा तो यह है कि दार्शनिक साँचेमे ढालनेपर भी वह रूखापन, वह वादविवादकी कटुता आने नही पाई है जो दार्शनिक रीतियोमे पाई जाती है । सूखे तर्कों और नीरस दलीलोकी ही तो भरमार वहाँ होती है। वहाँ सरसताका क्या काम ? दार्शनिक तो केवल वस्तुतत्त्वके ही खोजनेमे परीशान रहते है। उन्हे फुर्सत कहाँ कि नीरसता और सरसता देखें? ईश्वरवाद हम उसी चीजपर यहाँ विशेष प्रकाश डालने चले है। लेकिन उस अवतारवादकी जडमे कर्मवाद है और है यह दार्शनिकोकी चीज । गीताने उसीको ले लिया है। इसलिये जबतक कर्मवादका विवेचन नही कर लिया जाता, अवतारवादका रहस्य समझमे आ सकता नही । यही कारण है कि हम पहले कर्मवादकी ही बात उठाते है । यह कर्मका सिद्धान्त किसी न किसी रूपमे अन्य देशोके भी बहुतेरे दार्शनिकोने-पुरानोने और नयोने भी माना है । यह दूसरी बात है कि उनने खुलके ऐसा न लिखा हो। उनके अपने लिखने के तरीके भी तो निराले ही थे और सोचनेके भी। इसीलिये उनने यह बात निराले ही ढगसे-अपने ही ढगसे--मानी या लिखी है। मगर हमारे देशके तो आस्तिक-नास्तिक सभी दार्शनिकोने यह कर्मवाद स्वीकार किया है, सिवाय चार्वाकके । न्याय, साख्य आदि दर्शनोके अलावे जैन, बौद्ध, पाशुपत आदिने भी इसे साफ स्वीकार किया है । यह बात तो पहले ही कही जा चुकी है कि गीताने भी कर्मवादको माना है। मगर वह पौराणिक ढगके कर्मवादको स्वीकार
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