४. कर्मवाद और अवतारवाद N . ! गीताकी अपनी निजी बातोपर ही अबतक प्रकाश डाला गया है। मगर गीतामे कुछ ऐसी बाते भी पाई जाती है, जो उसकी खास अपनी न होनेपर भी उनके वर्णनमे विशेषता है, अपनापन है, गीताकी छाप लगी है। वे बाते तो है दार्शनिक । उनपर दर्शनोने खूब माथापच्ची की है, वाद-विवाद किया है। गीताने उनका उल्लेख अपने मतलबसे ही किया है। लेकिन खूबी उसमें यही है कि उनपर उसने अपना रग चढा दिया है, उन्हें अपना जामा पहना दिया है। गीताकी निरूपणशैली पौराणिक है। इसके बारेमे आगे विशेष लिखा जायगा। फलत इसमें पौराणिक बातोका आ जाना अनिवार्य था। हालांकि ज्यादा बाते इस तरहकी नही आई है। एक तो कुछ ऐसी है जिन्हे ज्योकी त्यो लिख दिया है। इसे दार्शनिक भाषामे अनुवाद कहते है । वैसा लिखनेका प्रयोजन कुछ और ही होता है। जबतक वे वाते लिखी न जायँ आगेका मतलब सिद्ध हो पाता नही। इसलिये गीताने ऐसी वातोका उपयोग अपने लिये इस तरह कर लिया है कि उनके चलते उसके उपदेशका प्रसग खडा हो गया है। मगर ऐसी भी एकाध पौराणिक बाते आई है जिन्हे उसने सिद्धान्तके तौरपर, या यो कहिये कि एक प्रकारसे अनुमोदनके ढगपर लिखा है। वे केवल अनुवाद नही है। उनमें कुछ विशेषता है, कुछ तथ्य है । ऐसी ही एक वात अवतारवादकी है। चौथे अध्यायके ५-१० श्लोकोमे यह बात आई है और वहुत ही सुन्दर ढगसे आई है । यह योही कह नही दी गई है। लेकिन गीताकी खूबी यही है कि उसपर उसने दार्शनिक रग चढा 1
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