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अपना पक्ष २३३ कर ली, तो वही हो गया विज्ञान । दूसरा दृष्टान्त लीजिये। कही पढ लिया या जान लिया कि हाईड्रोजन और प्रोक्सिजन नामक हवामोको विभिन्न अनुपातमे मिलानेसे ही जत तैयार हो जाता है। यह जान हुआ। और जब किसी प्रयोगशालामे जाके हमने इसका प्रयोग खुद करके देख लिया या दूसरोसे प्रयोग करा लिया तो वही विज्ञान हुआ। विज्ञानसे वस्तुके रगरेशेकी जानकारी हो जाती है। प्रकृतमे भी यही बात है। योही आत्मा-परमात्मा या जीव-ब्रह्म और ससारकी बात कह देनेसे काम नहीं चलता। वह वात दिलमे बैठ पाती नहीं। यदि बैठाना है तो उसका प्रयोग करके देखना होगा- यह देखना होगा कि किस पदार्थसे कौन कैसे बनता है, रहता है, खत्म होता है। यदि परमात्माही सब कुछ है तो कैसे, इसका विश्लेपण करना होगा। जव तक व्योरेवार सभी चीजोको अलग-अलग करके न देखेगे तब तक हमारा ज्ञान पक्का न होगा, विज्ञान न होगा, दिलमे बैठेगा नही । फलत उससे कल्याण न होगा। इसीलिये अध्यात्म, अधिभूत आदि विभिन्न रूपोमे आत्मा या परमात्माका जानना जरूरी हो जाता है और इसीलिये उसका उल्लेख पाया है। विना इसके जिज्ञासुमोको सन्तोष कैसे हो इसीलिये सातवेके आखिरी-३०वे-श्लोकका जो लोग ऐसा अर्थ करते है कि भगवानके ज्ञानके साथ ही अधिभूत आदिका पृथक् ज्ञान होना चाहिये, यही गीताकी मगा है, वह भूलते है। वहाँ तो सवोको परमात्म स्वरूप ही--"वासुदेव सर्वमिति"---जानना है । ब्रह्म तथा अधियज्ञको तो परमात्म-रूप साफ ही कहा है । जीव-अध्यात्म-भी तो वही है । हां, कर्म गायद अलग हो। मगर वह तो व्यापक है । फलत अन्ततोगत्वा वह भी जुदा नहीं है। ?