अपना पक्ष २२६ . उत्तरसे सभी बातोकी पूरी सफाई हो जाती है। परम अक्षरको ब्रह्म कहा है। असलमे १५वे अध्यायके "द्वाविमौ पुरुषौ लोके" (१६) श्लोकमे जीवको भी अक्षर कहा है। इसीलिये परम आत्मा-परमात्मा- की ही तरह यहाँ परम अक्षर कहनेसे परमात्माका ही बोध होता है। नही तो गडवड होती। अध्यात्मको स्वभाव कहा है। ब्रह्मके बाद स्वभाव शब्द आनेसे इसमे स्वका अर्थ वही ब्रह्म ही है । उसीका भाव या स्वरूप स्वभाव कहा जाता है। अर्थात् अध्यात्म, जीव या आत्मा ब्रह्मका ही रूप है । गीतामे स्वभाव शब्द कई जगह आया है। अठारहवे अध्यायके ४१-४४ श्लोकोमे कई वार यह शब्द प्रकृति या गुणोके अनुसार दिल-दिमागकी बनावटके ही अर्थमे आया है। उसी अध्यायके ६०वे श्लोकवालेका भी वही अर्थ है । पाँचवे अध्यायके "न कर्तृत्व” (१४) श्लोकमे जो स्वभाव है उसका अर्थ है सासारिक पदार्थों या सृप्टिका नियम । मगर जैसे अठारहवे अध्यायके स्वभाव शब्दमे स्वका अर्थ है गुण और तदनुसार रचना, उसी तरह पाँचवे अध्यायमे स्वका अर्थ है इसके पहलेके सासारिक पदार्थ, जिनका जिक्र उसी श्लोकमे है। ८वेके ही २०वे श्लोकमे जो भाव शब्द है उसका अर्थ है पदार्थ या हस्ती--अस्तित्व। ठीक उसी प्रकार इस श्लोकमे भी स्वभावका अर्थ हो जाता है ब्रह्मका भाव, अस्तित्व या रूप । दूसरा अर्थ ठीक नहीं होगा। कर्मका जो स्वरूप बताया गया है वह भी व्यापक है । "भूतभावो- द्भवकरो विसर्ग" यही उसका स्वरूप है। इसका अर्थ है कि जिससे पदार्थोंका अस्तित्व, वृद्धि या उत्पत्ति हो उस त्याग, जुदाई या पार्थक्यको कर्म कहते है। यहाँ विसर्ग शब्द और सातवेके २७वेका सर्ग शब्द मिलते- जुलते है। सस्कृतके धातुपाठमे जो धातुरोका अर्थ लिखा गया है वहाँ सृज धातुका विसर्ग ही अर्थ लिखा है। पहले कह चुके है कि "तपाम्यहमह
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