२२८ गीता-हृदय अपना ही सन्तोष तो नही होता ? असलमें उस यज्ञसे परमात्मातक पहुँचते है या नही यही प्रश्न है। इसीलिये देहके भीतर ही अधियज्ञको जाननेकी उत्कठा हुई है। क्योकि सबसे महत्त्वपूर्ण चीज यही है और सवसे सुलभ भी । मगर यदि इससे इन्द्रियादिकी ही पुष्टि हुई तो सारा गुड गोबर हो जायगा। इसीलिये सभी प्रश्न किये गये है। यह ठीक है कि सातवे अध्यायके अन्तमे कृष्णने कह दिया है कि वह ज्ञान सींग- पूर्ण है-इसमें कोई कमी नहीं है, क्योकि अधिभूत आदिको भी ऐसा पुरुष बखूबी जानता है । लेकिन जबतक अर्जुनको पता न लग जाय कि आखिर ये अधिभूत आदि है क्या, तबतक सन्तोष हो तो कैसे ? इसीलिये आठवेंके शुरूमें उसने यही पूछा है, यही प्रश्न किये है। उनके उत्तर भी ठीक वैसे ही है जिनसे पूछनेवालेको पूरा सन्तोष हो जाय। मरनेके समय भगवानको जाननेकी जो उत्कठा दिखाई गई थी उसका सम्बन्ध अधियज्ञसे ही है। इसीलिये उसे उसके बाद ही रखा है और उसका उत्तर शेष समूचे अध्यायमें दिया गया है। क्योकि सव प्रश्नोका मतलब चौपट हो जाय, यदि वह बात न हो सके । अर्जुनको यह भी खयाल था कि कृष्ण कही अपने आपकी ही भक्तिकी वात न करते हो, और इस प्रकार ब्रह्मज्ञानसे नाता ही न रह जानेपर कल्याणमें वावा न पड जाय । इसीलिये अर्जुनने पूछा कि आखिर वह ब्रह्म क्या है आपसे या ईश्वरसे अलग है या एक ही चीज ? उसका यह भी खयाल था कि कही ब्रह्म या परमात्मा भी वैसा ही चन्दरोजा न हो जैसी यह दुनिया। तव तो मुक्तिका यत्न ही वेकार हो जायगा। हिरण्यगर्भको भी तो ब्रह्मा या ब्रह्म कहते है और उसका नाश माना जाता है । यही कारण है कि उस ब्रह्मासे पृथक् परम अक्षर या अविनाशी ब्रह्मका निरूपण आगे किया गया है। वहाँ बताया गया है कि क्यो ब्रह्माका नाश होता है और कैसे, लेकिन अक्षर ब्रह्मका क्यो नही। ?
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