२२० गीता-हृदय मे मतम्" (७।१८)। इसकी वजह भी बताते है कि "वह तो हमसे- परमात्मासे-वढके किसीको मानता ही नही और हमीमें डूब जाता है"-"प्रास्थित सहि युक्तात्मा मामेवानुत्तमा गतिम्" (७११८) । लेकिन इसके बाद ही जो यह कहा है कि "ममारमे जो कुछ है वह सबका सव वासुदेव-परमात्मा ही है, ऐसा जो समझता है, वह तो अत्यन्त दुर्लभ महात्मा है"-"वासुदेव मर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ' (१९), वह तो वाकी वातोको हवामे मिला देता है। उससे तो स्पष्ट हो जाता है कि यही एक ही चीज दरअसल जाननेकी है। इतना ही नहीं। इसके आगे २०-२७ श्लोकोमे उन लोगोकी काफी निन्दा भी की गई है जो दूसरे देवताओ या पदार्थोकी ओर झुकते है । उनकी समझ घपलेमे पडी हुई बताई गई है, "हृतज्ञाना" (७।२०) । इसीलिये तुच्छ एव विनाशशील फलोको ही वे लोग प्राप्त कर पाते है", "अन्तवत्तु फल तेषा" (७।२३) । भौतिक दृष्टिवालोके बारेमे तो यहांतक कह दिया है कि हमारे असली स्पको न जानके ही ऐसे बुद्धिहीन लोग स्थूल रूपमे ही हमें देखते है,-"अव्यक्त व्यक्तिमापन्न मन्यन्ते मामवुद्धय (७॥२४) । आगेके तीन श्लोकोमे इसी बातका स्पष्टीकरण हुआ है। अन्तमें तो यहांतक कह दिया है कि रागद्वेषके चलते जो अपने-पराये और भले-बुरेकी गलत धारणा हो जाती है उसीका यह नतीजा है कि लोग इधर-उधर इस सृष्टिके भौतिक पदार्थोमे भटकते फिरते है-"इच्छाद्वेष समुत्येन द्वन्द्वमोहेन भारत । सर्वभूतानि समोह सर्गे यान्ति परन्तप" (७।२७) । इसके विपरीत जिन सत्कमियोमे यह रागद्वेषादि ऐव नहीं है वे अपने-पराये अादिके झमेलेमे न पडके पक्के निश्चय एव दृढसकल्पके पाय केवल हमी-परमात्मा-मे रम जाते है,-"येपा त्वन्तगत पाप जनाना पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मा दृढवता" (१२८) । इमीके बाद वे श्लोक आये है। तव कसे कहा जाय कि
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