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२१८ गीता-हृदय होता है। वही उसकी अपनी है, स्व है, आत्मा है। उसे हटा लो, अलग कर दो। फिर देखो कि वह चीज कहाँ चली गई, लापता हो गई। मगर जबतक उसकी आत्मा मौजूद है, सत्ता कायम है तबतक उसमें कितनी ताकते है । बारूद या डिनामाइटसे पहाडोको फाड देते है। बिजलीसे क्या- क्या करामाती काम नहीं होते। आग क्या नहीं कर डालती । दिमाग- दार वैज्ञानिक क्या-क्या अनोखे आविष्कार करते है। हाथी पहाड जैसा जानवर कितना बोझ ढो लेता है । सिंह कितनी बहादुरी करता है । मनुष्योकी हिम्मत और वीरताका क्या कहना मगर यह सब बातें तभीतक होती है जबतक इन चीजोकी हस्ती है, सत्ता है, आत्मा है। उसे हटा दो, सत्ता मिटा दो। फिर कुछ न देखोगे । अतएव यह आत्मा ही असल चीज है, इसीकी सारी करामात है। इसका हटना या मिटना यही है कि हम इसे देख नहीं पाते। यह हमसे अोझल हो जाती है। इसका नाश तो कभी होता नही, हो सकता नही। आखिर नाशकी भी तो अपनी आत्मा है, सत्ता है, हस्ती है। फिर तो नाश होनेका अर्थ ही है आत्माका रहना। यह भी नहीं कि वह श्रात्मा जुदा-जुदा है । वह तो सबोमें-सभी पदार्थोंमे---एक ही है । उसे जुदा करे कौन ? जब एक ही रूप, एक ही काम, एक ही हालत ठहरी, तो विभिन्नताका प्रश्न ही कहाँ उठता है ? जो विभिन्नता मालूम पडती है वह वनावटी है, झूठी है, धोका है, माया है । यह ठोक है कि शरीरोमें ज्ञानके साधन होनेसे चेतना प्रतीत होती है । मगर पत्थरमें यह वात नही । लेकिन आत्माका इससे क्या आग सर्वत्र है। मगर रगड दो तो बाहर आ जाय। नही तो नही । ज्ञानको प्रकट करनेके लिये इन्द्रियाँ आगके लिये रगडनेके समान ही है । इस तरह आध्यात्मिक पक्षवाले सर्वत्र आत्माको ही देखते है, ढूंढते है। उसे ही परमात्मा मानते है। ?