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यज्ञचन २१३ के कृश करनेकी बात कही गई है या घसीटनेकी-खीचनेकी-उसका भी मतलब नीचे गिराने, गिरने या पतनसे ही है। यह वात आसुरी कामोसे होती है। इसीलिये उनकी निन्दा और यज्ञकी प्रशसा की गई है । देखिये न, दुनियाबी बातोमे ऐसे लोग अपनी एव ईश्वरकी कितनी झूठी कसमे खाते है और इस प्रकार अपने आपको तथा ईश्वरको भी कितना नीचे घसीट लाते है ! जैसे भूतका अर्थ है सत्ताधारी, ठीक उसी प्रकार अन्नका अर्थ है जिसे खाया-पिया जाय या जो औरोको खा-पी जाय-"अद्यतेऽत्ति वा भूतानी- त्यन्नम् ।" वृष्टि या पानीकी सहायतासे जो भी चीजे तैयार हो या शुद्ध हो सभी अन्नके भीतर आ जाती है। वैदिक यज्ञादिसे या वैज्ञानिक रीतिसे जो वृष्टि कराई जाय, नहर आदिके जरिये या कुएँसे पानी वहाँ पहुँचाया जाय जहाँ जरूरत हो, वृक्षादिकी वृद्धिके जरिये वृष्टिको उत्तेजना दी जाय-क्योकि यह मानी हुई बात है कि जगलोकी वृद्धिसे पानी ज्यादा बरसता है और काट देनेपर कम--या दूसरा भी जो तरीका अख्तियार किया जाय और जितनी भी वैज्ञानिक प्रक्रियाये सिखाई-पढाई जायँ सभी यज्ञके भीतर आ जाती है । औषधियोके जरिये, स्वच्छताका खूब प्रसार करके या जैसे हो जलकी शुद्धिके सभी उपाय यज्ञ ही है । फिर आगे जो कुछ भी जलके प्रभावसे हमारे कामके लिये-समाजके लाभके लिये-- किया जाय, बनाया जाय-फिर चाहे वह शुद्ध हवा हो, खाद्य पदार्थ हो, जमीन हो, घर हो या दूसरी ही चीजे-सभी अन्नके भीतर आ जाती है। ज्ञान, ध्यान, समाधिके जरिये जो शक्ति पैदा होती है उससे क्या नहीं होता। योगसिद्धियोका पूरा वर्णन योगसूत्रोमे है । इसलिये यह सब कुछ यज्ञ ही है । जो भी काम आत्मा, समाज तथा पदार्थोंकी सर्वांगीण उन्नतिके लिये जरूरी हो उससे चूकना पाप है। यही गीताका उपदेश है, यही यज्ञचक्रका रहस्य है ।