२०८ गीता-हृदय और वहाँ भी आया है। चौथेके "ब्रह्मणोमुखे"का ब्रह्म शब्द भी वेदका ही वाचक है। इसी प्रकार छठे अध्यायके ४४वें श्लोकमे जो ब्रह्म शब्द है वह भी वेदार्थक ही है। उसके पूर्व में 'शब्द' शब्द लग जानेसे दूसरे अर्थकी गुजाइश वहाँ रही नहीं जाती। तीसरे अध्यायमें जो यज्ञचक्रके सिलसिलेमें ब्रह्म शब्द आया है वह भी वेदका ही वाचक है। शेष ब्रह्म शब्द परब्रह्म या परमात्माके ही अर्थमें आये है। शायद ही कही परमात्माके सिवाय उक्त शेष चार अर्थोमे किसीमें आये हो। असलमे तो ब्रह्म शब्दके तीन ही मुख्य अर्थ गीतामें पाये जाते है और ये है वेद, परमात्मा, प्रकृति । यह भी कही चुके है कि आमतौरसे ब्रह्मका अर्थ परमात्मा ही होता है । शेष अर्थ या तो प्रसगसे जाने जाते है, या किसी विशेषणके फलस्वरूप । दृष्टान्तके लिये प्रकृतिके अर्थमें ब्रह्म शब्द- का प्रयोग होने के समय प्रसग तो हई। पर, उसीके साथ महत् विशेषण भी जुटा है । यही वात वेदके अर्थ में भी है। शब्द ब्रह्मकी बात' अभी कही गई है । "ब्रह्मणोमुखे" में जो ब्रह्मका अर्थ वेद होता है वह प्रसगवश ही समझा जाता है। यज्ञोका विस्तार वेदोमे ही है। उसे ही वेदका मुख कह दिया है । मुख है प्रधान अग । इसीलिये मुख और मुख्य शब्द प्रधानार्थक है। वेदोके प्रधान अशोमे यज्ञोका ही विस्तार पाया जाता भी है। जिन लोगोने यहाँ "ब्रह्मणोमुखे"मे ब्रह्मका अर्थ परमात्मा किया है उन्हें क्या कहा जाय ? यज्ञोका, विस्तार वेदोमें ही तो है। भगवानके मुखमें विस्तार है, यह अजीब बात है। हमें आश्चर्य तो तब और होता है जब वही लोग "विद्या मा सोमपा." (२०), तथा "त्रयीधर्ममनु- प्रपन्ना" (९।२१),मे खुद स्वीकार करते है कि त्रयी या तीनो वेदोमें यज्ञयागादिका ही विशेष वर्णन है। फिर यहाँ वही अर्थ क्यो नहीं किया जाय ? तीसरे अध्यायमें भी ब्रह्मका विशेषण सर्वगत है । गम् धातु सस्कृतमें ज्ञानके अर्थमे भी प्रयुक्त होती है। इसीलिये अवगत शब्दका
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