यज्ञचक्र २०५ 1 ही देखें कि उसकी हकीकत क्या है। वहाँ यह क्रम पाया जाता है कि कर्मोसे यज्ञका स्वरूप तैयार होता है, वह पूर्ण होता है-यज्ञसे वृष्टि होती है, वृष्टिसे अन्न होता है, अन्नसे भूतो यानी पदार्थों तथा प्राणियोका भरण- पोषण होता है और उनकी उत्पत्ति भी होती है । इस प्रकार जो एक शृखला तैयार की गई है उसके एक सिरेपर भूत आ जाते है । भूतका असल तात्पर्य है ऐसे पदार्थोसे जिनका अस्तित्व पाया जाय-~-यानी सत्ता- धारी पदार्थमात्र । उसी शृखलाके दूसरे सिरेपर कर्म पाया जाता है, ऐसा खयाल हो सकता है । होना भी ऐसा ही चाहिये। क्योकि कर्मका ही सम्बन्ध पदार्थोसे मिलाना है और यही चीज गीताको अभिमत भी है। मगर इससे चक्र तैयार हो पाता नही। क्योकि जबतक शृखलाके दोनो सिरे-छोर-मिल न जायँ, जुट न जायँ, चक्र होगा कैसे ? चक्रका तो मतलब ही है कि शृखलाके भीतरवाले सभी पदार्थोका लगाव एक सरेसे रहे और कही भी वह लगाव टूटने न पाये । फलत. एक बार एक पदार्थको शुरू कर दिया और वह चक्र खुदबखुद चालू रहेगा। केवल शृखला रहनेपर और चक्र न होनेपर यह बात नही हो सकती। तब तो वार-बार शृखलाकी लडियोके किनारे पहुँचके नये सिरेसे शुरू करनेकी बात आ जायगी। मगर चक्रमे किनारेकी बात ही नहीं होती। सभी लडियाँ बीचमे ही होती है। यह ठीक है कि भूतोका तो कर्मोंसे ताल्लुक हई। भूतोमे ही तो क्रिया पाई जाती और क्रियासे यज्ञका सम्बन्ध होके चक्र चालू रहता है । किनारेका सवाल भी अब नहीं उठता। यही सर्वजनसिद्ध बात है भी। मगर इसमें दो चीजोकी कमी रह जाती है । एक तो यह बात निरी मशीन जैसी चीज हो जाती है । भूतोकी क्रियाके पीछे कोई ज्ञान, दिमाग या पद्धति है, या कि योही वह क्रिया चालू है, जैसे घडीकी सुइयोकी क्रिया चालू रहती है ? यह प्रश्न उठता है और इसका उत्तर जरूरी है । मगर
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